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________________ १६४ जनेन्द्र की कहानियां सातवा भाग] लेकिन, बात लौटने की नहीं है । जब कि कहता हूँ कि पत्नी के, माता के, पिता के, भाई के प्रति मैंने अपना दान नहीं किया, तो अभिप्राय यह है कि मैं किसी के लिए खपा नहीं, विसर्जित नहीं हुआ। मैंने अपने को बचाया। या हो सकता है, मैंने अपने को वारा नहीं, खोया । राष्ट्र पर मैंने अपने को दे डाला; पर राष्ट्र क्या है ? आदर्श पर मैंने अपने को वारा है; पर वह आदर्श क्या है ? वह राष्ट्र और वह आदर्श क्या इतनी तुच्छ वस्तुएँ हैं कि पत्नी को उससे बाहर ठहरना होगा ? माता, पिता, भाई-ये सब उसकी परिधि से बाहर रहेंगे ? क्या उस की परिधि इतनी संकरी है ? ठहरो, इन बातों से कछ नहीं उठना है । लौटना व्यर्थ है, दुष्कर है. मुझे अमान्य है । तब जो मैंने नहीं किया, वह क्यों सोचता हूँ ? बहुत कुछ है, जो मैं करता, पर नहीं किया। मन में अरमान क्या इसलिए हैं कि वे पूरे हों ? कल्पना क्या इसलिए है कि वह सब सिद्ध हो ? हम आसमान इसलिए नहीं देखते कि आसमान हम बन ही जाएँगे; लेकिन आदमी की हसरत-अरमान, उच्चाकांक्षाएँ इसलिए भी नहीं हैं कि वे आदमी को पंगु बनायें, पस्त बनायें। वे पूरी नहीं होंगी, ठीक; पर अधूरी रहने के माने यह नहीं कि वे हमें अविश्वासी पायें, विफलता और अकृत-कार्यता के बोझ से दबे पायें। ...पत्नी की अवस्था बीस वर्ष की है। पन्द्रह वर्ष की थी, जब में अमरीका गया। अठारह वर्ष की थी, जब लौटा। मुझे देखने न पाई थी और प्रतीक्षा में थी, कि कब मैं उसकी बनाई चाय पीने भीतर पहुँचता हूँ कि पकड़ा गया। अब वह बीस वर्ष की है और इक्कीस वर्ष की न हो पायगी कि मैं फाँसी पाकर समाप्त हो चुकू गा !... वह कौन है ? मेरी पत्नी है । पत्नी क्या ? पत्नी वह, जिसके साथ विवाह हुप्रा हो। विवाह ! यह विवाह अद्भुत तत्त्व है। मनुष्य ने उससे बढ़कर और क्या रचा है ? एक अनजान कन्या दूसरे बिलकुल.
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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