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________________ टकराहट ११. 1 रहने दें तो बड़ा प्राभार हो । पर मुझ में विष है जो मैंने बता दिया । मुझे इस आश्रम पर आप पर, सब पर, ईर्ष्या होती है । बच्चा हँसता हैं तो मुझे क्रोध श्राता है । कोई कैसे धीर, कैसे शान्त कैसे प्रसन्न रह सकता है, जब मुझमें इतने प्रश्न और इतनी अशान्ति भरी हुई है । कहाँ से यह सब कुछ मेरे भीतर श्राया है। अब तो पढ़ना भी छोड़ दिया है । फिर कल्पना क्यों नहीं चुप रहती ? जान पड़ता है गति मुझे चाहिए, गति, गति, गति । रुकी कि मरी । लेकिन भागते रहने से मैं तंग हूँ | चाहती हूँ कोई मुझे जबरदस्ती पकड़ ले और रोक ले । आप क्या मुझे रोक नहीं सकते हैं ? कैलाश - तो यहाँ मत रुको। अँधेरा हो रहा है । अब चलें । [ खड़े हो जाते हैं । लीला गिरकर उसके पैर पकड़ लेती है । ] लीला – थोड़ा रुकिए । अंधेरे से मुझे डर लगता है । वह मुझे लीलने को आता है । लेकिन में अभी आप को यहाँ से हटने देना नहीं चाहती । प्रार्थना में क्या थोड़ी देर बहुत होगी ? कैलाश - चलो, तुम भी प्रार्थना में चलो । लीला- - जरा देर रुक नहीं सकते ? कैलाश - देखो यह घड़ी । यह कहती है कि चलो । इसका कहना काल- देवता का प्रदेश है | ( हाथ पकड़कर लीला को उठाते ह । ) चलो, उठो । [ लीला चुपचाप उठकर साथ चल देती है, जैसे मन्त्र- बद्ध हो । सहसा वह चिहुँकती है, चकित भीता-सी देखती है । ] लीला – आप वहाँ इनकार लिख दीजिए । कैलाश – कहाँ, अमरीका ? मैंने लिख दिया है कि वह जरूर खुशी से यहाँ आवें । लीला - नहीं नहीं । मैं उस राह नहीं जाऊँगी । कैलाश — घबराओ नहीं ।
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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