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________________ १५४ जैनेन्द्र की कहानियां [सातवाँ भाग] क्या कुछ और नहीं समझ सकते ? क्या नेकनीयती का श्रेय किसी को देना तुम्हारे लिए दुष्कर है ? व्यक्ति का प्रादर तुम्हारे लिए कठिन है ?" वीरेन ने तपाक से कहा, "पण्डित जी, वे लोग पुराने होंगे, जो ईमानदार होते होंगे। अब ईमान उत्तर है तो सफलता दक्षिण । यह कान्फरेन्सें, यह सोशलिज्म, यह काँग्रेस, यह देशभक्ति-सब बातें हैं। सब शगल, सब व्यवसाय ।" । वीरेन जब इस तरह की बातें कहता है, तब लगता है कि उसने दुनिया के भीतर के तत्त्व को पा लिया है। जैसे दुनिया की नस-नस उसने देख ली है। हमें साठ बरस के होनेपर भी ऐसा अविश्वास करना नहीं पाया। और वीरेन की क्षमता देखो कि भरी जवानी में विश्वास को धता बतला सकता है। उससे ईश्वर की बात करके देखो, वह झट बता सकेगा कि किन चालाक आदमियों की चालाकी का प्रतीक यह ईश्वर खड़ा है और कैसे यह ईश्वर रग-रग में मिथ्या है ।" * सड़क पर चल रहे थे कि पास से एक बढ़िया इक्का गुज़र गया। (यह पटने की बात कहता हूँ।) घोड़े के सिर पर कलगी लगी थी, गर्दन में बसन्ती दुपट्टा बँधा था, माथे पै बड़ा लाल टीका । इक्का फेन्सी था और जगह-जगह लगी हुई पीतल चमचमा रही थी। सरपट चाल से वह निकला और मेरी आँखें अनायास उसकी ओर उठीं। दो स्त्रियां उस पर बैठी थीं। स्त्रियाँ उन्हें कहूँ कि रमणियाँ ! उम्र दोनों की बीस के लगभग होगी। रंग सांवला, आकृति में बुद्धि-प्राचुर्य न था । खादी की केसरिया साड़ी थी और कत्थई पाड़। सिर तीन-चौथाई खुला था और बाल घने होकर फैले थे । एक की ओर मेरा ध्यान विशेष रूप से गया। अगले हाथ की हथेली पर अपना सारा बोझ दिये वह उन्मन, प्रगल्भ ऐसी बैठी थी कि उसे न दुनिया की परवा है, न दुनिया के कहने
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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