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________________ १४४ जैनेन्द्र की कहानियाँ [सावाँ भाग ] मालूम हुआ । वह गुमसुम खड़ी रह गई । आँखों में जो पानी आ रहा था, वहीं रुक गया । और सचमुच वह प्रसन्न बनी बोली, “कभी राजीखुशी का खत साल है महीने में नहीं डाल दे सकते ? इतना काम रहता है !" व्यक्ति ने रुककर कहा, “काम ? पर अब तो खत नहीं ही डाल सकता । बतानो, क्यों डालू ? और राजी खुशी । ओह, राजी और खुशी तो मैं सदा का हूँ ।" त्रिबेनी ने असमन्जस में कहा, "अच्छा अच्छा । जैसी तुम्हारी मर्जी । मेरी कुछ इच्छा नहीं है । खुश रहो, यह चाहिए ।... अच्छा और तो कुछ नखा सके, लो, यह पान तो ले लो ।" हाथों से उठाकर त्रिबेनी ने तश्तरी सामने कर दी । तिथि ने रुककर कहा, "पान, मैं" - त्रिबेनी अब भी हठात् मुस्कराई । बोली, “पान भी नहीं खातेतो, जाने दो ।" व्यक्ति ने उस मुर्झाई मुस्कान को देखा और जल्दी मचाकर कहा, "अच्छा लाभो, जल्दी लानो ।” और रखकर फिर उठाई हुई त्रिबेनी के हाथों में थमी तश्तरी में से मानो झपटकर बीड़ा उसने उठा लिया । त्रिबेनी ने कहा, "इधर स्टेशन से तो कभी-कभी गुजरते होगे । यदि काम का हरज न हो, छठे-छमाहे दर्शन दे दोगे तो ऋण रहेगा ।" व्यक्ति ने कहा, “ऋरण ! तुम जानती नहीं, त्रिबेनी । लेकिन तुम्हारे प्रताप से अब यह कसूर मुझ से न होगा ।" यह कहकर वह हठ - पूर्वक अपने को सँभालकर चल ही दिया । पान हाथ में रहा । त्रिबेनी देखती रही, देखती रही। फिर मानो मूर्च्छा से जागकर एकदम कर्त्तव्यतत्पर हो पड़ी। सोचने लगी, रात को जब पति प्रवेंगे, में मैं उनसे क्षमा मांगकर अपने सुत्रों से उनका सब क्रोध बहा दूँगी । मैं बड़ी स्वार्थिन हूँ, बड़ी स्वार्थिन हूँ । इसी तरह की बातें सोचते-सोचते
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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