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________________ त्रिबेनी व्यक्ति ने कहा, 'अच्छा तो त्रिवेनी, मुझे माफ करना ।" त्रिवेनी कुछ नहीं बोली । व्यक्ति चलकर आँगन में आ गया । कमरे में से ही अब त्रिबेनी ने कहा, "लेकिन सुन्रो में पूछती हूँ, तुम श्रये क्यों ?" १४१ व्यक्ति मुड़कर त्रिवेनी की ओर देखता हुआ खड़ा रह गया । दिन हुए, जिन्दगी में एक बात आई थी । वह प्राई नहीं कि बीत गई । उस नन्हीं सी बात की समाधि के ऊपर से बरस-के-बरस घड़धड़ाते हुए निकल गये हैं । वही बीती बात उन सब वर्षों को व्यर्थ बनाकर आज कोंपल फोड़कर हरी-हरी उठ आना चाहती है क्या ! न, न, सो न होने देवा होगा | अतिथि कुछ न बोला । त्रिबेनी ने कहा, "नहीं आते तो कुछ हर्ज था ?" व्यक्ति यह सुनकर एकाएक लौटकर कमरे में आ गया और कुर्सी पर बैठ गया। बैठकर थिरता से बोला, “सुनो त्रिबेनी, इसके बाद गाड़ी रात के एक बजे जाती है । लेकिन खैर, एक काम करो । ताँगे में से समान मँगवा लो।" " सामान मँगवा लू ?" "हाँ, मँगवा सकती हो। यह हैं ताँगे वाले के पैसे | पर त्रिबेनी, बड़ी दया हो अगर न मँगवाओ । मेरे यहाँ रहने से किसको सुख मिलेगा ? तुमको नहीं, मुझको नहीं । फिर किसको ?... त्रिबेनी, मैं फिर कहता हूँ, मुझको जाने दो ।" त्रिबेनी कुछ देर चुप रही। फिर धीमे-से-धीमे बोली, "में तो कुछ भी नहीं कहती। मैंने कभी तुम्हें लिखा ? तुम्हें बुलाया ? - फिर तुम क्यों आये ?" व्यक्ति लज्जा से कुछ लाल हो प्राया, जैसे प्रभियुक्त हो, बोला, "मैं यह नहीं जानता था, त्रिवेनी | सच, नहीं जानता था । नहीं तो - "
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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