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________________ जैनेन्द्र की कहानियां [सातवाँ भाग "काम भी है।" __इसके बाद त्रिबेनी ने कुछ नहीं पूछा । मास्टरजी ने भी कुछ अपेक्षा नहीं की और कदम बढ़ाकर चले गये। त्रिबेनी कुछ देर तो वहीं-की-वहीं बैठी रही। थोड़ी देर बाद उठी और जाकर चूल्हे में पानी झोंक दिया, बटलोई को उतारकर धरती में पटक दिया । फिर खाट पर मुंह ढाँपकर पड़ गई। आधा घण्टा हुना होगा कि त्रिबेनी उठी । एक साथ उठकर झाडू से घर का आँगन बुहारने लगी। वहाँ कूड़ा ज्यादा नहीं था, पर त्रिबेनी आँगन साफ़ करना चाहती थी। बुहारी हाथ में थी, तभी उसने सुना कि कोई दरवाजे के बाहर से 'उन्हें पूछ रहा है । पूछ रहा है, "मास्टर मन्सारामजी का घर क्या यही है ?-मास्टरजी ! मास्टरजी !!" पहले तो वह उस स्वर पर चौंकने को हुई, फिर 'होगा कोई' मन में कहती हुई अपने काम में लगी रही। इतने में ही प्रागत व्यक्ति अन्दर आ गया और आंगन के किनारे खड़े होकर पुकारने लगा, "मास्टर मन्सारामजी, मास्टरजी हैं ?" त्रिबेनी ने आँख ऊपर उठाकर देखा । देखकर वह सन्न रह गई। बुहारी हाथ से खिसक गई । वह व्यक्ति भी अकचका गया। हठात् बोला, "मास्टरजी हैं ? मैं मिलने आया था।" हा क्षणेक तो त्रिबेनी विमूढ़ हो गई। फिर उसके मुंह से निकला 'प्रायो।' निकला तो, पर वह खड़ी वहीं-की-वहीं रह गई। ___ व्यक्ति ने बिलकुल ही पास आकर मानो उसकी आँखों में कहा, "मैं मिलने आया हूँ। वह हैं ?" अब त्रिबेनी स्वस्थ हो आई । मुस्कराकर बोली, "वह तो नहीं हैं".... कहकर अन्दर गई और उसने कोने से मोढ़ा खींचकर अपनी धोती से उसे झाड़कर खाट के पास बिछा दिया। किनारे एक काठ की कुर्सी पड़ी थी, उसे भी बिछा दिया। नीचे पड़ी दरी खींचकर, तह करके
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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