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________________ टकराहट लीला- —क्या ठीक है ! अशान्ति ठीक है । अशान्ति को आप समझते भी हैं ? मैं अशान्त हूँ । मुझे बताइये में क्या करूँ ? कैलाश - प्रार्थना में शामिल हुआ करो । लीला - छोड़िए प्रार्थना । मैं अपना दिल आपके सामने रखती हूँ | जी में होता है, मैं चलती रहूँ, चलती रहूँ । एक छन न ठह । श्राज आकाश, कल पाताल | मुझे होश रहे ही नहीं, ऐसी बेहोश रहूँ । अच्छा, सच बताइए, आपने कभी नशा किया है ? कैलाश नहीं | लीला- -तब आप कुछ नहीं जानते हो। मैं चाहती हूँ नशा, जो उतरे नहीं । कैलाश जो नहीं उतरता, वह भी क्या फिर नशा रहा ? लेकिन अगर नशा हो तो सामने देखती तो हो, उस नशे के लिए शराब हर घड़ी हर कहीं मौजूद है । नदी बह रही है; पेड़ हौले-हौले हिल रहे हैं; घास हरियाली बिछी है; प्रासमान है, जो सब को लेकर फिर भी सूना है; और यह धरती जो सब सहती है और गूँगी है । इस सब-कुछ के भीतर क्या वह नहीं है जो प्रक्षय है ? वह कभी नहीं चुकता । उसका नशा कभी नहीं चुकता । उसको चाहो, उसको पात्रो । वह नशा है, जो उतरेगा नहीं । वह अशान्ति में भी शान्ति देगा । लीला- - बस । मैं और नहीं सुन सकती । आपका मतलब है, ईश्वर । और मतलब है, धर्म । मुझे नहीं चाहिए ईश्वर नहीं चाहिए धर्म | ईश्वर को मैंने ढकोसला पाया है । मैं चाहती हूँ चैन । मुझे यह भीतर से क्या उक्साहट सताती रहती है । मानो कोई कहता रहता है, 'और आगे !' 'और आगे !' ऐसा जी क्यों होता है कि सब पा जाऊँ, और फिर उस सब को मसल दु । सबको पैरों के नीचे रौंद दूँ और फिर छाती से लगा लूँ ! कैलाश - (करुणा की हँसी हँसकर ) मैं समझता हूँ । श्राज चलो
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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