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________________ दर्शन की राह मैं उन्हें देखता रह गया । बोले, "क्या देखते हो ? सुनना चाहते हो ?" मैं और क्या चाहता था ? बोले १०६ १ : 1 विवाह के शीघ्र ही बाद पत्नी मैके चली गयी । तुम्हारे यहाँ भी गौने का तो रिवाज है न ? विवाह के कुछ काल का अन्तर डाल कर द्विरागमन होता है । सो विवाह के अवसर पर तो मानो खुलकर भेंट भी न हो सकी । भली-भाँति तब में उन्हें देख भी पाया, इसमें सन्देह है । मंगलाचार की ऐसी कुछ धूम-धाम रही। बहनें थीं और पड़ोस की भाभियाँ थीं । उनके कारण बहू की इतनी पूछ-ताछ हुई कि वर की याद ही न रखी गई । और गिनती के ये तीन-चार रोज बीतते- न-बीतते ससुराल से उनके भाई लिवाने श्रा गये । वह चली गयीं । 1 1 उस काल में अकेला था । अकेले यानी केन्द्र हीन । मन में बहुतबहुत आकांक्षाएँ थीं । आकांक्षाएँ किशोर जी उमगा प्राता था । मानो भीतर से एक वैभव उछाह में हिलोर लेता, फुहार में फूट कर किसी के आगे भर पड़ना चाहता था । पर किसके आगे ? अपने भीतर की भावना की विपुलता को किसके समक्ष लाकर लुटा दूँ । और अपने को धन्य करूँ, यह समझ में न आता था । माता से अनायास दूर पड़ता जाता था । अपने को सब शावक नहीं बल्कि समर्थ पाना प्रिय लगता था । जी होता था - पर क्या जी होता था ? जैसे किसी को श्राश्रय में लू और अपने भुज-दण्ड के बल पर समूचे विश्व के विरोध में उसकी रक्षा करूँ । जो मेरे द्वारा रक्षणीय हो और प्रार्थनीय भी हो । मुझ से निर्बल, पर स्वामिनी । जिसके आगे मैं अपना समूचा बल और समूची प्रभुता अर्घ्य की भाँति विसर्जित करके सार्थक करूँ ।
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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