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________________ टकराहट लीला-नहीं, कष्ट कोई नहीं। कैलाश-हिन्दुस्तानी खाना चल तो जाता है ? मिजाज न हो तो यहां का खाना बुरा तो नहीं होता। (खिलखिलाकर हँसते हैं।) . लीला-मुझे यह खाना बहुत अच्छा लगता है। कैलाश-हाँ ? तब तो हम असभ्य नहीं हैं। कला के पास वाले कमरे में ही हो न ? याद रखना, वह अब क्लेरा नहीं है। मैं चाहता हूँ कि तुम उसे समझा सको कि तपस्विनी न बने । देह सुखाने के लिए तो हमें नहीं मिली। लीला-उन्होंने तो मुझे ऐसे रखा जैसे मैं घर में हूँ। लेकिन आप बताइए, क्लेरा के साथ मुझे भी आप अपनी शरण में रख सकते हैं ? कैलाश--शरण ! प्रभु ईसा की शरण तुमने गही, तब फिर क्या चाहिए ? और यह धरती ईश्वर की है। यहाँ कौन किसको शरण देने का दम्भ कर सकता है। तुम्हारा घर है; ग्रामो, रहो। कहो, क्या तुम यहाँ रहना चाहती हो ? लीला-हाँ, रहना भी चाहती हूँ। पर क्या आप कहते हैं मुझे यहाँ वह मिलेगा जो मैं चाहती हूँ? कैलाश-क्या, सुख ? (खिलखिलाकर हँसते हैं।) लीला-सुख तो नहीं, लेकिन मैं दुःख से बचना चाहती हूँ। मैं अपने से, दुनिया से बचना चाहती हूँ। मैं अमरीका से भागी आई हूँ, क्यों ? सुना था कोई हिन्दुस्तान में कैलाश है जिसे दुनिया नहीं छूती। क्या यह सच है ? यहाँ दुनिया मुझे नहीं छू सकेगी ? अगर कहो कि ऐसा है तो मैं यहाँ रहना चाहती हूँ। ___कैलाश-(हँसकर) तुम्हारा सवाल तो बड़ा है। (हाथ घड़ी में लेकर उसे देखते हुए ) पर अभी तो तुम हो ही । अब हम फिर शाम को मिलें। या शाम को सोने के पहले। शाम को साथ घूमने चल सकती हो। लीला-क्या आपके किसी और काम का समय हो गया है ?
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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