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________________ जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग ] खा गया है। मुझे ऐसा लगता है, इतने बरस अकेले रहकर, जब-तब अपने भीतर की तह फाड़ कर अपना सिर उठा उठनेवाली आकाँक्षा को ही यह चुपचाप खाते रहे हैं; यहाँ तक कि ब उसका जड़ मूल ही निश्शेष हो गया प्रतीत होता है । बस चले, और अवसर आये, तो यह जीवन भर चाकरी करते रहें, और मगन बने रहें । बहुत पढ़ने और जानने से यह शून्य विन्दु हो रहे हैं, यो शून्य हैं, कोई अपने दायें इन्हें ले ले, तो उसका दस गुना मूल्य बढ़ा दें । मानो इनकी साधना ही यह रही है, कि यह शून्य हो जाएँ । मित्र सब कुछ जानकर यह नहीं जानते, सो नहीं है। मूर्ख ज्ञान चाहता है, मूर्खता का उनमें इतना अभाव है कि वह ज्ञान तक नहीं चाहते । शैतान काम चाहता है, शैतान का ऐसा आत्यन्तिक अभाव उनमें है कि वह सर्वथा निष्क्रिय रह कर प्रसन्न नहीं हैं । इतनी अधिक जानकारी उन्होंने पाई है कि जड़ हो गए हैं, ऐसा जड़, जो सचेतन है, और जिसने चेतना का ऐसा विकास किया है कि वह, जैसे यत्न करके जड़त्व को अपना उठा है। 1 ८० बात कितनी समझ आती है, मैं नहीं जानता । पर, मुश्किल यह है, वही समझ में पूरी तरह नहीं आते। पर, यहाँ कुछ कह लूँ, उनके सामने मेरी एक नहीं चलती। उनके सामने होकर देखता हूँ, उन से कुछ पा ही रहा हूँ, उन्हें दे सकने योग्य मेरे पास कुछ नहीं है । किन्तु, इतना सुनकर, मेरे बारे में भूल न हो। मैं उनकी तरह नहीं हूँ । घर-कुटुम्ब वाला हूँ, प्रतिष्ठा पैसे वाला हूँ, मेरा नाम खासा परिचित है, और जहाँ पहुँचता हूँ, गिना जाता हूँ । पर जब विद्याधर के पास पहुँचता हूँ, तब मेरे साथ इनमें से कुछ भी परिग्रह नहीं रह पाता । अपनी प्रतिष्ठा, सम्भ्रम, प्रसिद्धि, रौब और दम्भ इनमें से कुछ भी अपने साथ बटोर कर रखने की
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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