SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५२ जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग ] आए तो कीमत उसकी अधिक निकल पड़े। मैंने कहा, "तुम लोग घूमकर देख लो। मैं उस खद्दर भण्डार पर मिलूँगा । वहीं आ जाना ।" उन सबने इसे प्रसन्नता से स्वीकार किया । बला टली, और मैं खद्दर भण्डार पर अपने अपने मित्र के पास आ बैठा । एक घण्टा हो गया, दो घण्टे । पानवाला आकर लौट गया । नहीं ! दिन-भर बैठे गप थोड़े ही लगाई जा सकती हैं । इतवार है तो क्या, घर पर और भी काम हैं । यहाँ जैसे अनगिनत घण्टे मैं यों ही उनकी प्रतीक्षा में बैठा रहूँगा ! उकता कर मैं उनकी तलाश में चला । पर चलता ही हूँ कि दीखा, वे तो वे आ रही हैं। दूसरी ओर के फुटपाथ पर हैं, अब इधर आने के लिए मुड़ना चाहती हैं । सामान के छोटे बंडल सब के पास वटे हुए हैं। चलो, झगड़ा मिटा, इनकी सौदागरी तो खत्म हुई । वे मुड़कर चाँदनी चौक की बीच सड़क पर आई नहीं, कि देखता हूँ पानवाला कहीं से श्राकर उनके सामने जा पहुँचा है । वह रुक गई हैं । मेरे कान में जैसे आवाज आई, " प्वाइन बिनारिस । ब ... आइला प्वाइन बिनास प्वाइन !” मैंने गोया यह भी देखा कि वह उन अपनी सुर्मा लगी आँखों को जरा-जरा झपा कर ओठों क किनारों से हँस रहा है । देखता हूँ कि सलाई से बीड़ा उठा कर उसने सेरी भतीजी को दिया है, और उसने लिया है । मैं तैश खाता हुआ चला । पास पहुँचकर मानो उस सब मण्डलीको चेतावनी देते हुए बोला, “क्या है ?” पानवाला उसी तरह मानो मुग्ध प्रेम से मुस्कराता हुआ मेरी ओर मुड़ा मैंने कहा, "क्या है ?" मेरी बहिन ने कहा, "एक पान हमें भी दो ।" लगभग साथ ही मेरी पत्नी ने कहा, "एक मुझे भी देना ।" भतीजी ने पान की पहली पीक थूकते हुए कहा, "चाचाजी,
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy