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________________ व' गॅवार २२१ है, वहाँ काम है। पर, एक रोज कभी-कभी भगवान के नाम का भी तो देना चाहिए। काम से खाली एक दिन भी नहीं रखेंगे तो उसे क्या देंगे। सो अाज के रोज तो मैंने सङ्कल्प किया है कि मैं कोई काम की बात नहीं सोचूँगा। ये ही स्वामी जी ने कहा था। कहा था, "भागवानो भगवान को कुछ दो।" सो तब रुपया-पैसा जो सकती थी दिया। उन्होंने ये भी कहा था 'सातवें-आठवें एक दिन भी भगवान के नाम का निकाला करो जिस रोज कोई कुकरम नहीं करना, सान्ती-चित्त से रहना।' सो मैंने आज का रोज़ रख लिया है, आज में काम की कोई बात नहीं सोचगा। परमारथ की सब बात सोचूँ गा ।" चुप रहा । मैं समझ गया, यहाँ मेरी एक न चलेगी। मैं हार बैठा । वह गँवार भी चुप हो रहा। ___मैंने कहा, "विद्याधर, जाने यह आदमी कहाँ से आ मरा है। इसने मुझे हल्का कर दिया है। जी होता है, इस गँवार पर, रोष क्या करूँ, हँस पड़े। क्या विचित्र जीव है !...अब मुझसे अपनी बात कहते क्या बनेगी। और यह भी यहाँ से क्या टलेगा!" विद्याधर ने कहा, "विनोद, तुम विश्वास रख सकते हो, यह आदमी स्वयं अपने मन के भीतर इस समय हल्का नहीं है। इसके साथ भी कुछ है जो गाँठ की तरह बन्द है, और भारी है।" मैं चुप हो गया । सभी चुप थे। ऐसे कुछ देर निकली। तभी गँवार ने कहा, "जी, मेरे पास पचास रुपये हैं। मैं उन्हें कहाँ दान करूँ ?" हम दोनों ने उसकी ओर देखा। क्या वह पचास रुपये दान देने के लिए आकर ही वहाँ जूतों के पास अपना स्थान बनाकर बैठा है ? "जी, मेरी आमदनी डेढ़ सौ रुपया महावार से ज्यादा की
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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