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________________ १८४ जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग] अय्यर बोले, "आखिर तुम दोगी तो हो ही।" लेकिन श्रीमती जी ने इस सुने को अनसुना कर दिया। वह ठोड़ी को हथेलियों पर लेकर सोच में आगे मेज़ पर झुककर बैठ गई और कुछ देर कुछ नहीं बोलीं। इस अप्रत्याशित मौन पर और भी सब-कुछ रुक गया। थोड़ी देर में सहसा बोली, "सुरजन को, क्यों जी, हमारे यहाँ दसवाँ साल तो है ? तुम क्या समझते हो उसने लिया होगा ?" मैंने कहा, "मैं नहीं समझता।” बोली, "एक बार तुमने जो जेब से पैसे कम होने की शिकायत की थी। वह फिर मिले भी नहीं। लेकिन सुरजना ने लिये, इसका सबूत भी नहीं मिला।" मुझे चुप देखकर बोली, “सुनते हो, फिर क्या कहते हो ?" मैंने कहा, “क्या कहूँ ?" बोली, "कहो क्यों नहीं ? शक हो तो कहो । मैं.अभी उसकी चमड़ी बेंतों से उधेड़ सकती हूँ।" मैं बोला, "नाहक !" बोली, "तुम कहो नाहक, पर मेरा उस पर सब हक है। मैं उससे कह दूं तो वह अभी जमना में डूबकर मर सकता है । इतना वह मुझे मानता है। तो मैं उसको क्या पीटते-पीटते बेहाल नहीं कर सकती ? वह चोर बने तो क्या मैं चुपचाप इसको देखती रह सकती हूँ। कहो, तुम्हें शक है ?" __मैंने कहा, "शक नहीं है, सबूत का सवाल है।" श्रीमती जी ने मेरी ओर देखकर जोर से कहा, “सबूत नहीं, शक का सवाल है । शक काफ़ी है। उस पर ही मैंने सुरजना को अधमरा नहीं कर दिया तो मैं कैसी उसकी मालकिन हूँ। बोलो, कहो।"
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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