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________________ जनेन्द्र की कहानियाँ [तृतीय भाग] गुरु कात्यायन अपनी जगह से यह सुन रहे थे। शिव की मुद्रा और पार्वती की वाणी से उनका मन दहल गया था । अब उनको चैन न थी। सोचने लगे कि चलू माता पार्वती के चरणों में गिरकर कहूँ कि मैं कात्यायन हूँ, माता । पण्डित नहीं हूँ, अबोध बालक हूँ। पार्वती के बाद शिव के पास जाने या उनकी ओर निहारने का साहस उन्हें नहीं था । दूर से ही उनकी कान्ति को देख कर घबराहट छूटती थी। कात्यायन ने मानो उठ कर बढ़ने की कोशिश की, पर अनुभव हुआ कि सब तरफ बर्फ ही बर्फ है। ठण्ड के मारे हाथ पैर नहीं खुलते हैं। उन से उठा नहीं गया, बढ़ा नहीं गया । तभी प्रतीत हुआ कि बर्फ पैरों से ऊपर चल रही है। धीरे-धीरे समूचे शरीर को वफे के स्पर्श ने लपेट लिया। वह बहुत कातर हो आये। वहीं से चिल्लाए, 'माता'। लेकिन आवाज निकली नहीं और माता ने नहीं सुना । उनको संशय हुआ कि भगवान् अब प्रस्थान करने वाले हैं। तब बहुत जोर लगा कर उन्होंने उठना चाहा । पर जाने क्या जकड़ थी कि हिला-डुला भी नहीं गया। उस समय उन्होंने बैठे-ही-बैठे माथा झुकाया। माथा झुका, झुका, झुकता ही गया। मानो वह अतल की ओर खिंचे जा रहे हैं। रोकते हैं पर रोक नहीं सकते। क्या वह लुढ़क रहे हैं ? शायद हाँ ! संज्ञा उन की खो रही है। गिरे-गिरे और मुँह के बल कैलाश की बर्फ पर आ पड़े। सिर धरती में लगा तो कात्यायन जगे। पाया कि देह सरदी से ठिठुर रही है और वह औंधे मुंह धरती पर पड़े हैं।
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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