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________________ भद्रबाहु "ठीक कहती हो, शची ! पर मनुष्य विकराल प्राणी है। जब वह कुछ नहीं चाहता, तभी वह अजेय है। नारद जी से त्राण का उपाय पूछना होगा, देवि! नहीं तो मेरा इन्द्रत्व कहीं बाहर से नहीं अन्दर से ही मुझ में समाप्त हो जायगा, शची!" शची ने कहा, "जरूर तुम्हें विकार हुअा है, आर्य ! देवता होकर मनुष्य की-सी भाषा बोल रहे हो। केलि की भाषा हमारी है। यह ज्ञान की-सी वाणी तुम्हारे मुंह में किसने दी ? क्या नृत्यकिन्नरियों को बुलाऊँ, कि तुम्हारा उपचार हो ? उर्वशी, तिलोत्तमा-" ___ "ठहरो शची, वह वीणा सुन पड़ती है, नारदजी आते हैं।" नारद जी के आने पर शची ने तत्काल कहा, "देवर्षि, देखिये, चिन्ता-विचार यहाँ वर्जित हैं। ये स्वयं नियमों के प्रतिपालक हैं। फिर इनको देखिये कि विचार में पड़े हुए हैं। क्या यह अशुभ और अक्षम्य नहीं है ?" नारद ने इन्द्र से पूछा, “क्या चिन्ता है, वत्स !" ___ इन्द्र, "सेनानी मदनदेव भद्रबाहु के पास से निष्फल लौट आये हैं, भगवन् !" नारद ने दपटकर कहा, "स्वयं करने का काम दूसरे से करा लेगा रे, इन्द्र ? ये भद्रबाहु हैं, ऊर्ध्वबाहु नहीं । सेना भेजकर सन्त को जीतेगा, क्यों रे, दम्भी ?" इन्द्र ने चकित होकर पूछा, "तो फिर क्या करना होगा, भगवन् ?" नारदजी ने कहा, “करना क्या होगा रे.? अपनी श्रेष्ठता को अपने पास नहीं रखना होगा । इन्द्र है, स्वर्ग का अधीश्वर है, तो क्या तू ही सब-कुछ है ? अपने आसन को रखने के लिए भी तुझे सदा उसके ऊपर ही नहीं बैठना होगा, नीचे भी आना होगा।
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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