SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनेन्द्र की कहानियाँ [तृतीय भाग ] व्यापारों तक है, उसमें मुझे रस नहीं है, भगवन् ! किसी को अपने ही विरुद्ध करने में मेरी सहायता न माँगिये ।” ७० इन्द्र ने हँसकर कहा, “कामदेव इसी विशेषज्ञता के कारण तुम्हें यहाँ छोड़ जाते होंगे। देवि ! तुम्हें अपने पति पर श्रद्धा नहीं है ?" रति, "मैं उनकी अनुवर्तिनी हूँ, भगवन् । पर वह हवा में रहते हैं । उन्हें सदा कहती हूँ कि मनोलोक ही बस नहीं है । पर मैं उन्हें अपने में रोक कहाँ पाती हूँ ? उनका केन्द्र मुझ में हो, पर sues को लेकर वह अपनी परिधि विस्तार में रहते हैं । " इन्द्र ने कहा, "देवि, तुम स्वर्ग-धर्म को जानती हो । संयम हमारे लिए नहीं है । भद्रबाहु का प्रसंग अति विषम है। देवि, कंदर्प आयें तो उन्हें यहाँ भेज देना । इस बार वह तुमको छोड़कर नहीं जायँगे ।" रति ने कहा, "जिन्हें वह अपनी विजय यात्रा कहते हैं उनमें उनके साथ जाने की मुझे रुचि नहीं होती, भगवन् ! वह ध्वंसकारी काम है । मुझे सर्जन में रस है । इससे उन्हें मुझे साथ लेजाने को न कहें, भगवन् ! उन्हें बाधा होगी। वह क्षेत्र तैयार कर दें, तब बीज-वपन के समय मुझे आप याद कर सकते हैं ।" इन्द्र ने कहा, "देखो देवि, तुम्हारे स्वामी कदाचित् श्रा गये हों । उन्हें यहाँ भेज देना ।" रति के अनन्तर कामदेव इन्द्र के समक्ष उपस्थित हुए । इन्द्र ने कहा, “कामदेव, किसी शङ्का के लिए स्थान तो नहीं है ? नारद जी कह गये हैं कि फल से अधिक बीज की ओर ध्यान देना चाहिए। कहीं अनिष्ट का बीज - वपन तो नहीं हो रहा है ? मुझे पृथ्वी की ओर से ही संशय रहता है ।" कामदेव ने कहा, "महाराज, निश्चिन्त रहें । धरा - लोक काम
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy