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________________ भद्रबाहु इन्द्र को समाचार प्राप्त हुआ कि कामदेव की कन्दर्प - वाहिनी ने दुर्द्धर्ष ऊर्ध्वबाहु की तपश्चर्या को सफलतापूर्वक भंग कर दिया है । किन्तु वह इस पर पूर्ण आश्वस्त नहीं दिखाई दिये । सौधर्म ने पूछा, "महाराज को अब क्या चिन्ता शेष है ? इन्द्र ने कहा, "सौधर्म, ऊर्ध्वबाहु के सम्बन्ध में वह चिन्ता नहीं 1 है । कठोर तपस्वियों से मुझे भय का कारण नहीं है । फिर भी मर्त्यलोक के मानव की ओर से मैं निश्शंक नहीं हो पाता हूँ । उनमें से कुछ हम मध्यवर्ती देवताओं को बिना प्रणिपात किये सीधे भगवान् से अपना योग स्थापित करने में समर्थ होते हैं । हम लोग मनोरथों के सारथी हैं। किन्तु कुछ पुरुषोत्तम आरम्भ से ही शून्यमनोरथ होकर भगवान् में सन्निविष्ट होते हैं । उन पर हमारा शासन नहीं चलता । इच्छाओं के तन्तुओं द्वारा ही मानव-चित्त में हमारा अधिकार - प्रवेश है। उन तन्तुओं का सहारा जहाँ हमें नहीं है, वहाँ हम निष्फल हैं। सौधर्म, धरती पर ऐसे पुरुष जन्म पाते हैं जिनमें प्रवेश के लिए हमें कोई रन्ध्र प्राप्तव्य नहीं होता, ऐसी नीरन्ध्र जिनकी भगवद्भक्ति है ।" ६६
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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