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________________ जनेन्द्र की कहानियां [तृतीय भाग] क्षण-भर अप्सरा उनकी ओर मोनो देखती रही फिर मुस्कराहट बिखेरती यौवन-भार लिये नाना भंगिमा में शरीर को वक्र करती, नूपुरों को कणित करती हुई उन्हीं के निकट आने लगी। आतेआते मानो श्वास-स्पर्श तक पहुँच कर वह एक साथ त्वरित गति से फिरकी लेकर नृत्य करती हुई वह पीछे लौट उठी। उस समय उसका परिधान वायु में लहरें ले रहा था और उसके अंग-प्रत्यंग क्षण-क्षण झलक कर ओझल हो रहे थे। वे पल के सूक्ष्म भाग तक आँखों में झाई देकर तत्काल आपस में ऐसे खो जाते थे कि दक्षिणवाम का अन्तर भी नहीं रह जाता था। जैसे भागते हुए भीने बादलों में से दीख-दीख कर भी चन्द्रमुख न दीखे, पर चन्द्र-प्रभा और भी मोहक हो जाय । ऊध्वबाहु ने भृकुटी में वक्र डाल कर इस दृश्य पर निगाह खोली । मानो कुछ उनकी चेतना में झलमली देता हुआ घूम गया । दृष्टि उनको खुली ही रह गयी । भृकुटी का वक्र भी जाता रहा । गात में सिहरन हो आई। उसी समय हठात् कुछ स्मरण करके उन्होंने आँखों को बन्द कर लिया और ध्यान को मूर्धा की ओर खींचना चाहा । पर पलक नृत्य करती हुई देवाङ्गना को मन में पहुँचा कर मानो उस पर कपाट की भाँति ही बन्द हुए और ध्यान उन्हें मुहुमुहुः वलयमान उस अस्पष्ट ज्योतिज्ज्वाला के चहुँ ओर परिक्रमा करता हुआ प्रतीत हुआ। ___ उस समय अपने द्वंद्व के त्रास से ऊर्ध्वबाहु संतप्त हो आये। मानो शिरा-शिरा स्वयं उनके ही प्रतिकूल सन्नद्ध हो पड़ी हो । उनका रक्त उनके ही आदेश के प्रति विद्रोही हो उठा हो । उनका अंकुश स्वयं उन्हीं पर उलटा लग रहा हो। वह कुछ न समझ सके कि अपने विवेक के प्रतिकूल अपने रक्त की विजय वे स्वयं ही चाहते हैं। वह पूछने लगे कि क्या वह चाहते हैं कि रक्त उनके मस्तक में
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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