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________________ जैनेन्द्र की कहानियां [तृतीय भाग] लोगों में नहीं है ! इस पर क्षोभ उसके भीतर बल खा-खाकर उभरने और झरने लगा। वह क्षोभ उसे ही खाने लगा। अशक्त, निरुपाय, भीतर-ही-भीतर जल कर विक्षुब्ध, तब यह वहीं अपनी पूंछ में मुंह छिपाकर, आँख मुंद धरती पर लोट गया। वह न जग को देखना चाहता था, न दीखना चाहता था। व्यर्थता की अनुभूति से उसके प्राण मानों अपने आप में ही सिक-सिककर, भुन-भुनकर सूखते जाने लगे। __तभी उसकी पूँछ पर जोर की चोट दी गई। उसने तिलमिला कर सिसकारी के साथ अपना फन उठाया। वह फन सदा की भाँति प्रशस्त और भयानक था, किन्तु उसने देखा कि भगवान् का भेजा हुआ वह सँपेरा बीन को अभी अपने मुँह में लगाकर उसे बजा उठा है। और देखा कि वही है, जो चाहता है, कि वह (साँप ) चारों ओर एकत्र हुए लोगों को अपने निष्फल, निर्वीर्य आवेश का प्रदर्शन करके दिखाए-हाय ! यह समझकर साँप ने अपना मुंह फिर पूँछ में दुबका लेना चाहा, ताकि वह धरती से चिपटा पड़े रहे; किन्तु सँपेरे ने उसके शरीर पर चोट-पर-चोट दी। पराजित, परास्त मुँह दुबकाए लेटे रहने की भी तो लाचारी उसके पाले न रहने दी गई। नहीं, उसे फन उठाना होगा, वही फन जो कभी भयंकर हो; पर अब खिलौना है, जिससे लोग उसके निस्तेज सौन्दर्य और व्यर्थ क्रोध को देखकर बहलें और सँपेरे को पैसे दें। ___ साँप ने अन्त में एकत्रित समूह का मनोरंजन किया ही । इसके सिवाय उसे कहीं भी चारा नहीं मिला। लोगों को सन्तुष्ट करके, हारा, थका, जी में संतप्त और त्रस्त जब वह अपने घर में बन्द
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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