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________________ २८ जैनेन्द्र की कहानियाँ [तृतीय भाग] चहुँ ओर जैसे आतंक भर गया । पर वह गर्जना गूंजकर रह गई। हुँकार का उत्तर कोई नहीं आया। सिंह ने उस समय गर्व से कहा, "तुमने यह कैसे जाना 15 कोई वन है और वह आस-पास रहता है। जब मैं हूँ, आप सा निर्भय रहिए कि वन कोई नहीं है, कहीं नहीं है। मैं हूँ, तव किसी और का खटका आपको नहीं रखना चाहिए।" ___ बड़ दादा ने कहा, "आपकी बात सही है। मुझे यहाँ सदियाँ हो गई हैं। वन होता तो दीखता अवश्य । फिर आप हो, तब कोई और क्या होगा। पर वे दो शाख पर चलने वाले जीव जो आदमी होते हैं, वे ही यहाँ मेरी छाँह में बैठकर उस वन की बात कर रहे थे। ऐसा मालूम होता है कि ये बे-जड़ के आदमी हमसे ज्यादा जानते हैं।" सिंह ने कहा, "आदमी को मैं खूब जानता हूँ। मैं उसे खाना पसन्द करता हूँ। उसका माँस मुलायम होता है, लेकिन वह चालाक जीव है । उसको मुंह मारकर खा डालो, तब तो वह अच्छा है, नहीं तो उसका भरोसा नहीं करना चाहिए । उसकी बात-बात में धोखा है।" ___ बड़ दादा तो चुप रहे, लेकिन औरों ने कहा कि सिंहरान, तुम्हारे भय से बहुत-से जन्तु छिपकर रहते हैं । वे मुंह नहीं दिखाते। वन भी शायद छिपकर रहता हो । तुम्हारा दबदबा कोई कम तो नहीं है। इससे जो साँप धरती में मुंह गाड़कर रहता है, ऐसी भेद की बातें उससे पूछनी चाहिएँ । रहस्य कोई जानता होगा तो अँधेरे में मुँह गाड़कर रहने वाला साँप-जैसा जानवर ही जानता होगा। हम पेड़ तो उजाले में सिर उठाये खड़े रहते हैं। इसलिए हम बेचारे क्या जानें।
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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