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________________ बाहबली और मनुष्य को ज्ञात हुआ कि जीना रहना नहीं है, जीना करना है। भोग से अधिक जीवन कर्म है और प्रकृति को ज्यों-का-त्यों लेकर बैठने से नहीं चलेगा। कुछ उस पर संशोधन, परिवर्धन, कुछ उस पर अपनी इच्छा का आरोप भी आवश्यक है। बीज उगाना होगा, कपड़े बनाने होंगे, जीवन-संचालन के लिए नियम स्थिर करने होंगे और जीवन-संवृद्धि के निमित्त उपादानों का भी निर्माण और संग्रह कर लेना होगा। अकेला व्यक्ति अपूर्ण है, अक्षम है, असत्य है। सहयोग स्थापित करके परिवार, नगर, समाज बना कर पूर्णता, क्षमता और सत्यता को पाना होगा। ठीक जब की बात कहते हैं तब व्यक्ति व्यष्टि-सत्ता से समष्टिसिद्धि की ओर बढ़ चला था। राजा जैसी वस्तु की आवश्यकता हो चली थी। पर राजा जो राजत्व की संस्था पर न खड़ा हो, प्रजा की मान्यता पर खड़ा हो। यह तो पीछे से हुआ कि राजत्व की संस्था बनी और शिक्षा और न्याय विभाग-रूप में शासन से पृथक हुए। नगर बन चले थे और जीवन-यापन नितान्त स्वाभाविक कर्म न रह गया था। उसके लिए उद्यम की आवश्यकता थी। इस भाँति प्रथम राज्य बना और प्रथम राजा हुए श्री आदिनाथ । उनके दो पुत्र थे, दो पुत्रियाँ । पुत्र भरत और बाहुबली; पुत्रियाँ ब्राह्मी और सुन्दरी। अवस्था के चतुर्थ खण्ड में ज्येष्ठ पुत्र को बुला कर श्री आदिनाथ ने कहा, "पुत्र, अब तुम यह पद लो। मुझे अब दीक्षा लेनी चाहिये।" भरत ने कहा, "महाराज-" आदिनाथ ने कहा, "तुमको पहला चक्रवर्ती होना है। इस
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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