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________________ जैनेन्द्र की कहानियाँ [तृतीय भाग ] यह कहकर मदारी ने उस साँप की पूँछ में अपने हाथ से एक जोर की चोट दी। २१० साँप बैठा-बैठा अपनी अधभपी आँखों से मानों अपने इर्दगिर्द इकट्ठे हुए इन सीधे होकर चलने वाले लोगों के प्रति प्रेम और करुणा की बातें सोच रहा था। इस प्रकार के मात्र दो पैरों को धरती पर टिकाए वृक्ष की भाँति खड़े ही खड़े चलने वाले इन आदमी नामक जन्तुओं को उसने अपने स्वदेश में अधिक नहीं देखा था । आरम्भ में देखकर तो उसे इन दो टाँगों पर चलने वाले आदमियों में विकट भय का ही बोध हुआ था। पर जब उसने जाना कि यह निर्बल प्राणी तो किसी भी अवस्था में उसका एक दंश भी सहन नहीं कर सकते हैं तब भय के स्थान में करुणा होने लगी । उन्हीं विचित्र और अल्पप्राण मनुज - जन्तुओं का जब झुण्ड का झुण्ड उसने अपने चारों ओर पाया तब पहले तो उसे भय हुआ । फिर कुछ लज्जा हुई । और अन्त में वह विचार से पड़ में गया । उसे यह मनुष्य का अविचार मालूम हुआ कि मुझ में उन्हें इतना विस्मय है । फिर भी उसे यह अच्छा लगा कि मुझ में इन प्राणियों को इतना प्रेम है । किन्तु होते-होते उसके लिए इतनी दृष्टियों का केन्द्र बनकर संकुचित पड़े रहना भारी होता आया । वह इन पराये प्राणियों के प्रान्त में से भाग कर अपने विटपाच्छन्न स्वदेश में ही चला जाना चाहता था । किन्तु मार्ग कहाँ था ? 1 उसी समय पूँछ में चोट खाकर उसने फरण उठाया । वह फर चौड़ाता ही चला गया । उसने तुरन्त चोट देने वाले की ओर देखा । किन्तु, सँपेरा मुँह में बीन देकर बजा रहा था । कुछ क्रोध में, साँप फण फैलाए खड़ा रहा। उस प्रशस्त फण के आतंककारी सौन्दर्य पर लोगों की आँखें जमी रह गई । मानों इस समय तो उन्हें उस
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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