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________________ १६२ जैनेन्द्र की कहानियाँ [तृतीय भाग] इस चक्रवर्तित्व के दोष से मेरे लिए निषिद्ध हो गए हैं। जहाँ-जहाँ जन हैं, वहाँ ही वहाँ यह जनाधिपता भी मेरे लिए है। वह मिथ्या नहीं है क्या ? मैं जानाधिप होके मिथ्या हूँ, वत्स, इसी से सत्य के लिए मुझे विजनता में जाना होगा।" युवराज ने कहा, "आप का आदेश ही यहाँ का तो सत्य है । प्रजा-जन को निराश्रित करके आप कहीं न जाइए, पिता जी ! अपने सत्य के लिए उन्हें उनके सत्य से वञ्चित न कीजिए।" पिता के स्वर में विषाद और भी सघन हो आया। बोले, "पुत्र बड़े होगे तब तुम जानोगे । पदार्थों को बटोर कर उनके बीच हमने रुकना चाहा, यही हमारी भूल है। क्या कभी कोई रुक सका है ? और जिधर हर कोई चाहे-अनचाहे, जाने-अनजाने, चला जा रहा है, वह सत्य की ओर नहीं है, तो क्या है।" युवराज ने कहना चाहा, “महाराज !” । किन्तु महाराज ने नहीं सुना, और वह रोके न रुके । केशश्वेत होने से पहले-पहले सब राजा-वैभव, ऐश्वर्य, पुत्र-कलत्र, राज-रानी और दास-दासियों को छोड़ कर वह विजन-वन में चले गए। * उनके पीछे राज में तीन शक्तियों का उदय हुआ। एक युवराज जो महाराज विजय-भद्र के उत्तराधिकारी थे; दूसरे सेनाधिपति खड्गसेन; और तीसरे राजगुरु चक्रधर । युवराज के पास पैत्रिक अधिकार था, खड्गसेन के पास सेना का बल था, और चक्रधर के हाथ में न्याय-संस्था थी। युवराज ने देखा कि आगे संघर्ष है। वह अपने संबन्ध में अविश्वासी नहीं थे, इससे वह संघर्ष नहीं चाहते थे । अतः सेना
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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