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________________ एक गो १८६ । जाती । फिर भी जो तुम कहोगे, वह मैं सब कुछ मानूँगी ।" हीरासिंह ने विषाद-भरे स्वर में पूछा, “तो मैं तुम्हारा क्या हूँ?" गौ ने कहा, “सो क्या मेरे कहने की बात है ? फिर शब्द मैं विशेष नहीं जानती । दुःख है, वही मेरे पास है। उससे जो शब्द बन सकते हैं, उन्हीं तक मेरी पहुँच है । आगे शब्दों में मेरी गति नहीं है । जो भाव मन में हैं, उसके लिए संज्ञा मेरे जुटाये जुटता नहीं । पशु जो मैं हूँ । संज्ञा तुम्हारे समाज की स्वीकृति के लिए जरूरी होती होगी; लेकिन, मैं तुम्हारे समाज की नहीं हूँ । मैं निरी गौ हूँ । तब मैं कह सकती हूँ कि तुम मेरे कोई हो, कोई न हो, दूध मेरा किसी और के प्रति नहीं बहेगा । इसमें मैं या तुम या कोई शायद कुछ भी नहीं कर सकेंगे । इस बात में मुझ पर मेरा भी बस कैसे चलेगा ? तुम जानते तो हो, मैं कितनी परबस हूँ ।" हीरासिंह गौ के कण्ठ से लिपटकर सुबकने लगा। बोला, " सुन्दरिया ! तो मैं क्या करूँ ?” गो ने कम्पित वाणी में कहा, "मैं क्या कहूँ ? मैं क्या कहूँ ?” हीरासिंह ने कहा, "जो कहो, मैं वही करूँगा सुन्दरी ! रुपये का लेन-देन है; लेकिन, मेरी गौ, मैंने जान लिया कि उससे आगे भी कुछ है । शायद उससे आगे ही सब कुछ है। जो कहो वही करूँगा, मेरी सुन्दरिया !" गौ ने कहा, "जो तुम से सुन रही हूँ, उसके आगे मेरी कुछ चाहना नहीं है । इतने में ही मेरी सारी कामनाएँ भर गई हैं। आगे तो तुम्हारी इच्छा है और मेरा तन है । मेरा विश्वास करो, मैं कुछ नहीं माँगती और मैं सब सह लूँगी।" सुनकर हीरासिंह बहुत ही विह्वल हो आया। उसके आँसू रोके
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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