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________________ १८२ जैनेन्द्र की कहानियाँ [ तृतीय भाग ] से और दुःसह हो गया कि सेठ का विश्वास उस पर है । वह गौ को सम्बोधन करके बोला, “जाओ, बहिनी ! जाओ ।" गौने सुनकर मुँह जरा ऊपर उठाकर हीरासिंह की तरफ देखा, मानो पूछती हो, "जाऊँ ? तुम कहते हो जाऊँ ?" हीरासिंह उसके पास आ गया । उसने उसके गले पर थपथपाया, माथे पर हाथ फेरा, गलबन्ध सहलाया और काँपती वाणी में कहा, “जाओ बहिनी सुन्दरिया, जाओ । मैं कहीं दूर थोड़े हूँ। मैं तो यहाँ ही हूँ ।" हीरा सिंह के आशीर्वाद में भीगती हुई गौ चुप खड़ी थी । जाने की बात पर फिर जरा मुँह ऊपर उठा उठी और भरी आँखों से उसे देखती हुई मानो पूछने लगी, "जाऊँ ? तुम कहते हो जाऊँ ?” हीरासिंह ने थपथपाते हुए पुचकार कर कहा, "जाश्रो बहिनी ! सोच न करो।" फिर घोसी को आश्वासन देकर कहा, "लो, अब ले जाओ, अब चली जायगी ।" यह कहकर हीरासिंह ने गाय के गले की रस्सी अपने हाथों उस घोसी को थमा दी ।" गाय फिर चुपचाप डग डग घोसी के पीछे-पीछे चली गई । हीरासिंह एकटक देखता रहा । उसने आँसू नहीं आने दिये । हाथ के नोटों को उसने जोर से पकड़ रखा। नोटों पर वह मुट्ठी इतनी जोर से कस गई कि अगर उन नोटों में जान होती, तो बेचारे रो उठते । वे कुचले - कुचलाये मुट्ठी में बँधे रह गये । उसके बाद सेठजी वहाँ से चले गये और हीरासिंह भी चल कर अपनी कोठरी में आ गया। कुछ देर वह उस हवेली की ड्योढ़ी के बाहर शून्य भाव से देखता रहा । भीतर हवेली थी, बाहर बिछा शहर था, जिसके पार खुला मैदान और खुली हवा थी और उनके
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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