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________________ एक गो १७६ कि गौ आखिर बेचनी तो होगी ही। अच्छा है कि वह गाँव से दूर कहीं इसी जगह रहे । रुपये पाँच कम, पाँच ज्यादा, यह कोई ऐसी बात नहीं। पर गाँव के पटवारी के यहाँ तो सुन्दरिया उससे दी न जायगी। उसने सेठ के जवाब में कहा, "जो हुकम, मैं आज ही चला जाता हूँ। लेकिन एक बात है, मेरा लड़का जवाहर राजी हो जाय, तब है । वह लड़का बड़ा अक्खड़ है और गाय को प्यार भी बहुत करता है।" सेठ ने समझा, यह कुछ और पैसे पाने का बहाना है। बोले, "अच्छा, दो सौ पाँच लेना। चलो दो सौ सात सही। पर गाय लाओ तो । दूध पन्द्रह सेर पक्के की शरत है।" हीरासिंह लाज से गड़ा जाने लगा। वह कैसे बताये कि रुपये की बात बिलकुल नहीं है। तिस पर ये सेठ तो उसके अन्नदाता हैं। फिर ये ऐसी बातें क्यों करते हैं ? उसे जवाहर की तरफ से सचमुच शंका थी। लेकिन इन गरीबी के दिनों में गाय दिन पर दिन एक समस्या होती जाती थी। उसको रखना भारी पड़ रहा था। पर अपने तन को क्या काटा जाता है ? काटते कितनी वेदना होती है। यही हीरासिंह का हाल था । सुन्दरिया क्या केवल एक गौ थी ? वह तो गौ माता थी, उसके परिवार का अंग थी। उसी को रुपये के मोल बेचना आसान काम न था। पर हीरासिंह को यह ढारस था कि सेठ के यहाँ रहकर गौ उसकी आँखों के आगे तो रहेगी। सेवा-टहल भी यहाँ वह गौ की कर लिया करेगा। उसकी टहल करके यहाँ उसके चित्त को कुछ तो सुख रहेगा। तब उसने सेठ से कहा, "रुपये की बात बिलकुल नहीं है सेठ जी! वह लड़का जवाहर ऐसा ही है। पूरा बेवस जीव है । खैर, आप कहें, तो आज मैं जाता हूँ। उसे समझा-बुझा सका, तो गौ को लेता
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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