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________________ १७२ जैनेन्द्र की कहानियां [तृतीय भाग] सेठानी को पुत्र मिला, पण्डित के घर धन बरसा, रूपमती का नाम सार्थक हो गया और कान्चनमाला पति को आकृष्ट कर सकी। इसको भी चार वर्ष हो गये हैं। महात्मा का अब पता नहीं है। यहाँ सब उन्हें याद करते हैं और फिर उनकी आवश्यकता अनुभव करते हैं। - सेठ जी को पुत्र मिला, पर सेठानी दूर होने लगी। मानो कोई अपरिचित उनके बीच सुख में साझी होने को आ पहुँचा है। सेठानी व्यस्त रहती है, नौकर बढ़ गये हैं। उनसे काम लेने और डाँटने का काम भी बढ़ गया है । जब देखो, वैद्य-डाक्टर की ही बात । सेठ जी के सुख की व्यवस्था में भी कमी आ गयी है । सेठानी अब दुकान से लौटने पर प्रतीक्षा करती नहीं मिलती। न सुख-दुःख की बात ही उनके पास सेठ से कहने को विशेष रह गयी है। बात करेंगी, तो बच्चे की ही। बात क्या शिकायत होती है कि यह नौकर ठीक नहीं है, डाक्टर बदल दो, बच्चे की अमुक चीज़ नहीं लाये, वैद्य जी ने क्या कहा, आदि-आदि। सेठ जी घर में अकेले पड़ गये हैं। सेठानी को स्वयं चैन नहीं है। वह रात-दिन जी-जान से विनोद की परिचर्या में रहती है। फिर भी कुछ न कुछ उसे होता ही रहता है। हर घड़ी उसे शंका घेरे रहती है। विनोद जब तक आँख से ओझल रहता है तब तक वह आधे दम रहती है।... और फिर एक लड़का, जाने कपूत निकले कि सपूत । एक तो और हो । लड़की हो तो अच्छा । जाने महात्मा कहाँ गये? बस, भगवान् एक और दे दें। पण्डितानी रात-दिन धन की हिफाजत में रहती है। बैंक में सूद नहीं उठता, कर्ज में जोखिम है। जायदाद ले लो, नहीं कुछ
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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