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________________ जैनेन्द्र की कहानियाँ [तृतीय भाग ] सेठ-सेठानी भयभीत होकर बोले, "महाराज, हमारा अपराध क्षमा हो ।" १६६ महात्मा सुस्करा दिये । शिष्य ने कहा, "अब आप जा सकते हैं।" सेठ-सेठानी बोले, “महाराज, हम अपराधी हैं। तो भी आपकी दया हो जाय तो — " महात्मा ने कहा, "देगा, वही पायेगा । सब देगा, वह सब पायेगा । है, सो उसी का प्रसाद है । इसमें सन्तोष सच है, तृष्णा झूठ ।” कहकर महात्मा चुप हो गये । सेठ-सेठानी फिर भी हाथ जोड़कर खड़े रहे, तो महात्मा बोले, " प्रार्थी की परीक्षा होगी - जाओ ।" शिष्य उसके बाद पण्डित यज्ञदत्त को लेकर पहुँचे । नमस्कार कर पण्डितजी ने कहा, "यह नियम योग्य नहीं है कि पति को पत्नी से अलग होकर यहाँ आना पड़े। परिडतानी के बिना 'कुछ भी निवेदन नहीं कर सकूँगा ।" मैं महात्मा हँस दिये । तब शिष्य पण्डितानी को भी ले आए। पण्डितानी ने प्रणाम करके बताया कि पण्डित कुछ काम नहीं करते हैं और आठवाँ बच्चा गोद में है। महाराज ऐसा जतन बताओ कि अब और बालक न हों और घर धन-धान्य से भर जाय । पण्डित बीच में कुछ कहना चाहते थे, पर महात्मा की मुस्क - राहट में कुछ ऐसी मोहिनी थी कि पत्नी की बात को वहीं तर्क से छिन्न - विच्छिन्न करने की उत्कंठा उनकी सहसा मन्द हो गयी । महात्मा ने कहा, "भगवद्-उपासना से बड़ा कर्म क्या है ? ब्राह्मण का वही कर्म है ।" पण्डितानी बोली, “महाराज, मैं ही जानती हूँ कि घर में
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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