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________________ १६४ जनेन्द्र को कहानियाँ [तृतीय भाग] व्यक्ति रहता था। वह शिष्य होगा। यथावसर वह महात्मा के सूत्रों को समझाकर बताता भी था। शेष व्यवस्था भी उसी पर थी। सेठ-सेठानी आये, तो उन्हें मालूम हुआ कि महात्मा के पास एक-एक को अलग जाना होगा । सो सेठ अकेले पहुँचे और दण्डवत करके कहा, "महाराज, मुझ पर दया हो।" महात्मा मौन रहे। सेठ बोले, "महाराज, आपकी दया से घर में सम्पदा की कमी नहीं है, पर पुत्र का अभाव है। सेठानी का मन उसी में रहता है। ऐसी कृपा कीजिए कि पुत्र प्राप्त हो।" महात्मा हँसे, बोले, "धन जिसने दिया है, उसे दे दो और पुत्र माँग लो । पुराना लौटाओगे नहीं, तो नया कैसे पाओगे?" सेठ समझे नहीं, तब शिष्य ने कहा, "महात्माजी कहते हैं कि पुत्र के लिए अपना सब धन भगवान् की प्राप्ति में लगाने को तैयार हो, तो तुम्हें वह प्राप्त हो सकता है।" सेठ ने कहा, “महाराज, थोड़े-बहुत की बात तो दूसरी थी। सब धन के बारे में तो सेठानी से पूछकर ही कह सकता हूँ। घर में सम्पदा है, उसी के भोग को तो पुत्र की तृष्णा है।" महात्मा ने कहा, "भोग में नहीं, यज्ञ में अपने को दो । उससे भगवान् प्रसन्न होंगे।" कहकर वह चुप हो गये और मुलाकात समाप्त हुई। शिष्य ने कहा, "अब आप जा सकते हैं।" सेठ ने वहीं माथा टेक दिया। बोला, “ऐसे में नहीं जाऊँगा। पुत्र का वरदान लेकर ही जाऊँगा।" __महात्मा ने कहा, "बिना दिये लेता है वह चोरी करता है, इससे कष्ट पाता है। भगवान के राज्य में अन्याय नहीं है।"
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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