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________________ नीलम देश की राजकन्या १४६ ऊपर-ही-ऊपर उड़ जाते हैं। बादल जहाँ-तहाँ भागते रहते हैं। आसमान गुम्बद्-सा नीला-नीला निर्विकार खड़ा रहता है । और राज-कन्यो पाती है, उसका कोई नहीं है, कोई नहीं । वह अपनी ही है।...लेकिन क्या वह अपनी ही है ? बीतते पलों के बीच काल स्थिरता से देख रहा है। राज-कन्या के मन के भीतर निमन्त्रण अहर्निशि झङ्कार दे रहा है, यद्यपि बाहर सब मौन है । वह मन्त्र की निरन्तर जागृत ध्वनि ही उसका सहारा है, नहीं तो एकदम सब शून्य है, सब व्यर्थ है । उसके भीतर जो प्रतीक्षा है, वही है सब निस्सारता के बीच सार सत्य । जब प्रतीक्षा है सत्य, तो वह असत्य कैसा जिसकी प्रतीक्षा हो ? जब प्रतीक्षा मैं कर रही हूँ तो प्रतीक्षा को समाप्त कर देने या उसे असमाप्त रखने वाला भी है । वह नहीं है, तो मैं ही नहीं हूँ। पर मेरे भीतर की झङ्कार तो है ही, तब उसको धारण करने वाली मैं भी हूँ। और तब उसको ध्वनित करने वाला वह भी है और है। पर मास बीते, वर्ष बीते, शताब्दियाँ बीती, युग बीते। महल के बड़े-बड़े आँगन-प्रकोष्ठों में खड़े हुए स्तम्भ, ऊपर की छतें, सामने की दीवार और चारों ओर का शून्य गुंजा-गुना कर कहता है, "कोई नहीं है, कोई नहीं है। अरी ओ राजकन्या, बस काल है जो बीतने का नाम है । काल है जो मौत का भी नाम है। अरी राजकन्या, बस कहीं और कुछ नहीं है।" पर राजकन्या के भीतर तो अहरह एक मन्त्रोच्चार की ध्वनि हो रही है, उसे इन्कार करे तो कैसे ? नहीं कर सकती, नहीं कर सकती। इसमें काल को चुनौती मिलती है तो भी क्या। "वह है, वह है। नहीं तो मैं किसके लिए हूँ ? अपनी प्रतीक्षा के लिए मैं हूँ और मेरी प्रतीक्षा उसके लिए है।"
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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