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________________ लाल सरोवर होती जा रही थी। इसलिए अपने एक बचपन के साथी चन्दन से उसने सच्ची-सच्ची बात कह दी। तब चन्दन भी उस वैरागी के पीछे सुमेर के साथ रहने लगा। अब वे दोनों जितनी अशर्फ़ियाँ बनती उनमें से नाम के लिए कुछ गुरु जी को दे देते थे, बाकी सब अपने पास रख लेते थे। सुमेर और चन्दन दोनों ही उस वैरागी को बुद्ध मानते थे। लेकिन जब कई दिन हो गये और दोनों ने चुपके-चुपके काफ!, मुहरें अपने पास जमा कर लीं, तब उनको उस वैरागी पर बड़ी दया आई। एक दिन जंगल में रोक कर उन्होंने उस वैरागी से कहा, “वैरागी, ये लो मोहरें लो। ये तुम्हारी हैं।" वैरागी सुनकर सन्न खड़ा रह गया, जैसे कि उस पर बिजली गिरी हो । उसने कहा, "बाबा, मेरा सोने से क्या काम है ?" चन्दन ने कहा, "वैरागी, हम सच कहते हैं । ये हमारी अशर्फियाँ नहीं हैं, तुम्हारी हैं।" वैरागी ने कहा, "बाबा, वैरागी से ऐसी हँसी नहीं करनी चाहिए । सोने से मन पर मैल चढ़ता है।" चन्दन ने कहा, "वैरागी, तुम हमें रोज ही तो देखते होगे; हम तुम्हारे पीछे-पीछे चलते हैं । बताओ, भला क्यों ? भेद यह है कि तुम जहाँ पैर रखते हो वहीं एक मोहर बन जाती है। उसी लालच में हम तुम्हारे पीछे-पीछे चला करते हैं। हमने इस तरह बहुत-सी मोहरें जमा कर ली हैं। यह एक तरह हमने चोरी ही की है । लेकिन तुम्हारी दीनता देखकर हमको अब शरम भाती है । ये लो, हम सच कहते हैं, ये तुम्हारी हैं। इनको रखो और अपनी हालत सुधारो, सम्भालो। तुम किसलिए इतनी कड़ी मेहनत करते हो और दिन-रात उस साधु की सेवा में रहते हो ?"
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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