SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनबन स्वर्ग में इन्द्र के पास शिकायत पहुँचो कि धृति और बुद्धिइन दोनों में अनवन बनी रहती है । यह बुरी बात है और अनबन मिटनी ही चाहिए। इन्द्र ने बुद्धि को बुलाया। पूछा, "क्यों बुद्धि, यह मैं क्या सुनता हूँ ? धृति के साथ तुम्हारी अनबन की बात बहुत दिनों से सुनता रहा हूँ । यह बात तुम्हारी और स्वर्ग की प्रतिष्ठा के योग्य नहीं है ।" बुद्धि, "मेरा इसमें क्या दोष है ? मुझे अप्सराओं में प्रमुख पद दिया गया; लेकिन धृति मेरी प्रमुखता नहीं मानती । यह धृति ही का दोप है ।" इन्द्र, "धृति क्या कहती है ? कैसे वह तुम्हारी प्रमुखता नहीं मानती ?" बुद्धि, "वह बड़ी चतुर है । ऊपर से तो सीधी बनी रहती है, पर भीतर अभिमानिनी है। उसके चेहरे पर मेरे लिए अवशा लिखी रहती है ।"
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy