SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नारद का अर्ध्य ८३ सब ठीक है । किन्तु उस ग्रह के धरातल पर जिस मानव नामक जन्तु ने अभी हाल में जन्म लिया है, उस ही जन्तु की जाति कुछ शीघ्रता चाहती है। उन्हें अपने गति वेग पर तृप्ति नहीं है । वह नवीन मानव सृष्टि काल की चाल में वेग चाहती है ।" भगवान् ने इस पर अपने वाम पार्श्व में देखा । तदनन्तर स्मित भाव से उन्होंने कहा, "नारद जी, पृथ्वी तो बहुत काल से अब इन (पार्वती) के संरक्षण में है। प्रिये, सुनो, नारद जी क्या कहते हैं ?" देवी पार्वती ने भृकुटि निक्षेपपूर्वक अपनी अन्यमनस्कता जतलाई और व्यक्त किया कि नारदजी को जो कहना हो, कह सकते हैं। - नारदजी ने कहा, "देवी महारानी, अपने शक्ति यन्त्रालय के कारीगरों को आज्ञा दीजिए कि वे पृथ्वी नामक कन्दुक की गति में कुछ तीव्रता का प्रक्षेपण दें । तब पृथ्वी पर प्राणियों में मूर्धन्य जो मनुष्य नामक जीव है, उसको सन्तोष होगा । महामाता, वह मनुष्य नामक प्राणी यद्यपि शरीर में सूक्ष्म और सामर्थ्य में अकिंचन है, फिर भी उसका अहंकार अपरम्पार है । भगवान् ने जो बुद्धि और तर्क का क्षुद्र अस्त्र कृपापूर्वक उसे जीवन-यापन के लिए दिया है, उससे वह मनुष्य नामक प्राणी अपने को मार लेने को तैयार हो गया है। इसलिए महारानी जी, उसकी इस मूर्ख इच्छा में उसकी सहायता करें | अन्यथा वह आत्मघात करके ब्रह्मविकास की भगवान् की आयोजना में विघ्नकारक होगी । " देवी पार्वती ने विस्मय से कहा, "ऐसा है ? उस मनुष्य नामक कीट की उत्पत्ति की बात तो हमको बताई गई थी । क्या अब वही कीट ऐसी जल्दी पर पाकर मरना चाहता है ? वह कीड़ा कैसा है.
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy