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________________ जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग ] मनोहर अपनी 'सुरी-सुरो सुर्री' की याद कर पानी से नाता तोड़, हाथ की लकड़ी को भरपूर जोर से गंगा की धारा में फेंककर, जब मुड़ा, तब श्रीसुरबाला देवी एकटक अपनी परमात्मलीला के जादू को बूझने और सुलझाने में लगी हुई थीं । मनोहर ने बाला की दृष्टि का अनुसरण कर देखा - श्रीमतीजी बिलकुल अपने भाड़ में अटकी हुई हैं। उसने जोर से क़हक़हा लगाकर एक लात में भाड़ का काम तमाम कर दिया । न जाने क्या किला फतह किया हो, ऐसे गर्व से भरकर निर्दयी मनोहर चिल्लाया- “सुर्रो रानी !” सुर्रो रानी मूक खड़ी थीं । उनके मुँह पर जहाँ अभी एक विशुद्ध रस था, वहाँ अब एक शून्य फैल भया । रानी के सामने एक स्वर्ग आ खड़ा हुआ था । वह उन्हीं के हाथ का बनाया हुआ था और वह एक व्यक्ति को अपने साथ लेकर उस स्वर्ग की एक-एक मनोरमता और स्वर्गीयता को दिखलाना चाहती थीं । हा, हन्त ! वही व्यक्ति आया और उसने अपनी लात से उसे तोड़-फोड़ डाला ! रानी हमारी बड़ी व्यथा से भर गई । ७२ हमारे विद्वान् पाठकों में से कोई होता, तो उन मूर्खों को समझाता—'यह संसार क्षणभंगुर है। इसमें दुःख क्या और सुख क्या । जो जिससे बनाया है वह उसी में लय हो जाता है-इसमें शोक और उद्वेग की क्या बात है ? यह संसार जल का बुदबुदा है, फूटकर किसी रोज जल में ही मिल जायगा । फूट जाने में ही बुदबुदे की सार्थकता है । जो यह नहीं समझते, वे दया के पात्र हैं। री, मूर्खा लड़की, तू समझ । सब ब्रह्माण्ड ब्रह्म का है, और उसी में लीन हो जायगा । इससे तू किसलिए व्यर्थ व्यथा सह रही है ? रेत का तेरा भाड़ क्षणिक था, क्षण में लुप्त हो गया, रेत में मिल
SR No.010355
Book TitleJainendra Kahani 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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