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________________ जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग ] आशुतोष का चेहरा रूठा ही रहा। मैंने बूया से कहा कि उसे रोको मत, जाने दो। आशुतोष रुकने को उद्यत था । वह चलने में आनाकानी दिखाने लगा । 10 बूया ने पूछा, "क्या बात है ?" मैंने "कोई बात नहीं, जाने दो न उसे ।” कहा, पर आशुतोष मचलने पर आ गया था। मैंने डाँटकर कहा, " प्रकाश इसे ले क्यों नहीं जाते हो ।" ने कहा कि बात क्या है ? क्या बात है ? मैंने पुकारा, " तू बँसी - भी साथ जा । बीच से लौटने न पावे ।” सो मेरे आदेश पर दोनों आशुतोष को जबरदस्ती उठाकर सामने से ले गए। बूआ ने कहा, "क्यों उसे सता रहे हो ?" मैंने कहा कि कुछ नहीं; जरा यों ही फिर मैं उनके साथ इधर-उधर की बातें ले बैठा । राजनीति राष्ट्र की ही नहीं होती मुहल्ले में भी राजनीति होती है । यह भार स्त्रियों पर टिकता है । कहाँ क्या हुआ, क्या होना चाहिए इत्यादि स्त्रियों को लेकर रँग फैलाती है। इसी प्रकार की कुछ बातें हुईं, फिर छोटा-सा बक्सा सरका कर बोली, इसमें वह कागज हैं जो तुमने माँगे थे । और यहाँ - 1 यह कहकर उन्होंने अपनी बास्कट की जेब में हाथ डालकर पाजेब निकालकर सामने की, जैसे सामने बिच्छू हो । मैं भयभीत भाव से कह उठा कि यह क्या ? बोली कि उस रोज भूल से यह एक पाजेब मेरे साथ ही चली गई थी ।
SR No.010355
Book TitleJainendra Kahani 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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