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________________ इमाम १७ बोध शिशु को देखती रह गई । उसमें अनुताप उमड़ा। उसके मन में अपने इस लाड़ले के लिये प्यार भर आने लगा। देखो कि घर में होकर भी अनाथ-सा रहता है। मैं जब हुआ झिड़कती रहती हूँ। उन्हें ! सो उनको कहाँ ध्यान है अपना या किसी का ! वह श्रहिस्ता से अपने छौने के पास आन बैठी। फिर हौले से उसके गाल के नीचे अपनी हथेली देकर चेहरा ऊपर उठाते हुये बोली, “बेटे !" बालक ने आँख खोली, जैसे उसे पहिचानने में कुछ देर लगी हो, फिर उसे माँ का प्यार बहुत अच्छा लगा। जैसे कब से छूट गया हो, और अब मुहत बाद मिला हो। उसने फिर आँख मीची और अपने को उस प्यार में अवश छोड़ दिया। बालक की दोनों कनपटियों को हाथ में लेकर माँ बोली, "आँख खोल बेटे, क्या इनाम लेगा माँ से, बता ?” बेटा विह्वल हुआ पड़ा रहा, उसने कुछ बताया नहीं । माँ ने कहा, "दो रुपये लेगा ? अच्छा चल पाँच रुपये, उठ !" इतने में ध्वनि आई, "श्रो हो, आज तो यह बड़े प्यार हो रहे हैं, !" साथ ही बालक के पिता ने एक खूँटी से छाता लटकाया । और कोट के बटन खोलने शुरू किये । बालक की माँ फौरन उठ गई, चेहरा खिंच आया । श्रोठ बन्द हो गये, और वह तेजी से बाहर जाने को हुई। बालक झपट कर उठ बैठा । बोला, “पिता जी, मैं क्लास में फर्स्ट श्राया हूँ ।" पिता बोले, "ओह, तभी तो कहूँ कि पाँच रुपये किस बात का इमाम है ।" माँ बोली, "कैसे पाँच रुपये, श्रासमान से श्रीजाएँगे । लाके दिया है तुमने इस महीने में ? घर में तो मैं हूँ, रुपये होंगे किसी और के लिये ।"
SR No.010355
Book TitleJainendra Kahani 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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