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________________ २०४ जैनेन्द्र की कहानियां [द्वितीय भाग] बाल-बच्चे सैकडों कोसों दर है. और छन बीतते अनन्त दर हो सकते हैं । है तो वह स्वाद, लेकिन बड़ा कड़वा स्वाद है। बताया कि किस भाँति हम मारते हैं और किस भाँति हम मरते हैं । उसने कहा कि मेरी समझ में नहीं आता, कैसे अपने सगे लोगों के खयाल से बचकर मरा जा सकता है। मरना कभी खुशी की बात नहीं हो सकती । और यह अचरज है कि क्यों जिन्हें हम मारते हैं, उनके बारे में यह नहीं सोचते कि मरना उनके लिए भी वैसा ही मुश्किल है । हम मारकर खुश क्यों होते हैं ? लेकिन फौज में यही बात है कि जिस मारने से हम मामूली जिन्दगी में डरते हैं, उसी मारने का नाम वहाँ बहादुरी हो जाता है। वहाँ आदमी जितने ज्यादा को मारता है, उतना ही अपने को कामयाब समझता है, और लोग इसके लिए उसे इनाम और प्रतिष्ठा देते हैं। बोला_ "मुझे इसमें खुशी नहीं मिली । पर जब लोग तारीफ करते थे; तब जरूर खुशी होती थी। और, आपस में जो एक होड़-का-सा भाव रहता था कि देखें, कौन ज्यादा दुश्मनों को मारता है, उस होड़ में जीतने की खुशी को भी खुशी कहा जा सकता है । असली मारने में तो दरअसल किसी तरह का स्वाद है नहीं।... और दुश्मन ? मुझे नहीं मालूम, वे मेरे दुश्मन क्यों थे ? जिन्हें मैंने मारा, मेरा उन्हों क्या बिगाड़ा था ? दुश्मन तो दुश्मन, मैं उन्हें जानता भी नहीं था । अब भी यह सोचने की बात मालूम होती है कि फिर वह क्यों तलवार खोलकर मेरी गर्दन काटने सीधा मेरी तरफ बढ़ा चला आता था और क्यों मैंने उसे अपनी तलवार की धार उतार दिया, जब कि हममें कोई तकरार न यी । कहीं-न-कहीं इस मामले में कुछ काला मालूम होता है । देखो, तुम हो, मैं हूँ। तुम-हम दोनों पहले कभी नहीं मिले,
SR No.010355
Book TitleJainendra Kahani 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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