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________________ जैनेन्द्र की कहानियां [द्वितीय भाग] आदमी मुझे ही देख रहा है। मुझे डर लग पाया। देखते-देखते उसकी माथे की नसें फूल आयीं। आँखों से चिनगारी छुटने लगी। क्या वह मुझे निगल लेना चाहता है। उसका आकार बड़े पर बड़ा होने लगा। वह दानव-सा लगने लगा। भय के मारे मैं... इतने में उसने मेरी ओर देखा और चीख कर कहा, “पकड़ लो इसे, यह आदमी हँसता है !” वह मुझे पकड़ने को बढ़ा। और कई भी उसके साथ बढ़े। वे दैत्य बन आये। मैंने भागना चाहा, पर भागा गया नहीं । पैर पत्थर थे और मैं हिल भी नहीं सकता था। “यही है । हँसता है, इसे बाँध लो।" वे इतने पास आ गये जैसे सिर पर। मेरी साँस धौंकनी-सी चल रही थी। हाय...मैं.. आँख खुली तो देखा मैं पसीने-पसीने हो रहा हूँ। कहीं कुछ नहीं है, सब सुनसान है। मैंने पसीना पोंछा और अपने मन की कमजोरी पर हँसा । कुछ दीखता नहीं था। पर धीमे-धीमे आँखों ने चीन्हा कि अँधेरे में मिली-सी माँ खाट पर सीधी बैठी हैं। मैंने कहा, "माँ!" माँ न चौंकी, न बोली। "तुम जाग रही हो?" माँ धीरे से बोली, "नहीं।" "क्या बजा होगा? "दो बजे होंगे।" मैंने कहा, "और तुम बैठी हो!" बोली, "अभी उठी थी।" मुझसे रहा न गया । खाट पर पहुँचकर उनके हाथ को हाथ में लेकर मैंने कहा, "माँ ओ माँ !” माँ ने मुझे कुछ कहने न दिया।
SR No.010355
Book TitleJainendra Kahani 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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