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________________ पढ़ाई १८७ ___".."मेरे मन बिथा बड़ी होती है। तुम जानो उसका ब्याह भी होगा । इसीसे मैं इतना कहा करती हूँ।" मैंने कहा, "ठीक तो है।" और सोचा, लड़की को ब्याह देने के वक्त की व्यथा को इतने साल दूर से खींच लाकर अपने मनमें आज ही प्रत्यक्ष अनुभव कर उठनेवाला स्त्री-माता का हृदय कैसा है ? सबेरे-ही सबेरे कोलाहल सुन पड़ा। जान पड़ता है, यह होहल्ला फिर नूनी को लेकर ही है । नूनी नहीं होती घर में, तब सब चुपचाप अपने-अपने में हो रहते हैं, मानों उन्हें अपने काम से और अपने निज से ही मतलब है; एक दूसरे से कुछ मतलब शेष नहीं रह गया । नूनी न हो बीचमें, तो हम दोनों तक को आपस में बात करने के लिए विषय का अभाव-सा लगता है । नूनी को लेकर आपस में बोल लेते हैं, झगड़ लेते हैं, मिल लेते हैं। इस तरह खाली-से हम नहीं रहते । दिन भरे-से-हुए बीत जाते हैं। सुना, कहा जा रहा है, "तो नहीं पिएगी, तू दूध ?" "नहीं पीते ।" "नहीं पीती ?" "हम नहीं पीएँगे!" "देख लो, जीजी, यह तुम्हारी बेटीनी दूध पीती नहीं हैं।" यह जोर से कहा गया। _ और दूर चौके से नूनी की बुआ ने कहा, "दूध पी ले बेटी। कैसी रानी मेरी बेटी है।" रानी बेटी ने कहा, "हमें रोज-रोज दूध अच्छा नहीं लगता।" नूनी की माँने कहा, "रोज-रोज खेलना तो बड़ा अच्छा लगता है !”
SR No.010355
Book TitleJainendra Kahani 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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