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________________ १८० जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग] कुछ तारे झपाझप कर रहे थे। थोड़ी देर में सूरज आनाने वाला था । माँ ने कहा, “बेटा, वह तारा देखती हो ? वह छिपता जा रहा है । मुझे वहीं जाना होगा।" बेटी ने कहा, "अम्मा !" "बेटा, तुझे अपने बाप की याद है ? तू छोटी थी और वह उसी तारे में हैं । और तारा छिप जायगा, तो मैं किसे देखती वहाँ पहुँचूँगी ?" बेटी ने कहा, "मैं तुम्हारा साथ नहीं छोड़ें गी, माँ; मैं भी साथ चलूँगी।" ___ "तू चलेगी, बेटी ? वह बहुत दूर है । और तू क्यों चलेगी ?" बेटी ने कहा, "मैं चलूँगी-चलूँगी। मैं तुम्हारा साथ नहीं छोड़ेंगी।" नदी, वन, खेत, पहाड़-इन सब पर से उड़ती हुई माँ-बेटी उस तारे की टक सीध में चली जा रही थीं । बेटी ने कहा, "अम्मा, जरा ठहरो, मैं थक गई हूँ।" "बेटी, यहाँ कहाँ ठहरोगी ? चली चलो।" कुछ दूर और आगे चली ! बेटी ने कहा, “अम्मा, मैं बड़ी थक गई हूँ। मुझ से और नहीं उड़ा जाता ।" सामने नीचे एक पहाड़ की चोटी पर सूखा पेड़ खड़ा था । माँ ने कहा, "अच्छा बेटा, तुम इस पेड़ की डाल पर ठहर जाओ। मैं जाती हूँ।" बेटी ने कहा, "नहीं-नहीं, अम्मा ! मैं भी साथ चलँगी ! तुम जरा रुको।"
SR No.010355
Book TitleJainendra Kahani 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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