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________________ जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग] आती थी। रोक कहीं न थी। विस्तार था और विस्तार । बस मैं था और शून्य था । तारे थे, जो शून्य को और शून्य, और मुझ एक को और अकेला बनाते थे। ____ इस निपट सूने में चुन्नू के पिता कहाँ खो गये हैं। कल क्या था, आज क्या है ? पर यह शून्य तो वैसा ही रहता है। रात को काला, दिन को उजाला, और हमेशा रीता। मैंने मन-ही-मन आतंक से भरकर इस शून्य को प्रणाम किया। मेरा अस्तित्व जिसका नकार है; मैं खुद होकर जिसे कभी न मान सकूँगा उसी के प्रति मैंने रोम-रोम से कहा कि 'हे चिर शून्य, नकार द्वारा मैं तुझे प्रणाम करता हूँ। तू अँधेरा है, चुन्नू के बाप को तू नहीं दिखा सकेगा। न तू दिखा सकता है, न दीख सकता है । पर तमाम इतिहास और तमाम काल और समूचा विस्तार जिस तुझ में नेति हो जाता है, हे महाशून्य, उसी तुझ को मैं ना कहकर प्रणाम करता हूँ। तू नहीं है, चुन्नू के बाप भी तुझ में होकर नहीं है, हम सभी एक रोज तुझ में होकर नहीं होंगे। सो सब-कुछ को नकार कर देने वाले हे सुनसान के मौनी, मैं नहीं ही मानकर तुझे प्रणाम करता हूँ।' कब मैं लौटा ? लौट कर खाट बिछा कर चाहा सो जाऊँ। पर नींद आती नहीं थी। सोचा, चलू, चुन्नू के गले लग कर थोड़ा रो देखू। सवेरे से रो नहीं सका हूँ। काम की भीड़ में उसका मौका नहीं मिला । आज मैं चुन्नू क्यों न हुआ कि खुलकर रोता और सो जाता । उस समय उठकर मैं चुन्नू की खाट तक गया। वह सो रहा था। उसका एक हाथ थोड़ा करवट में दब गया था। दूसरा तकिये पर पड़ा था । मेरा जी हुआ उस हाथ को हाथ में लेकर कहूँ 'चुन्नू भैये राजा, हम तुम एक हैं।' कहूँ, और फिर हम दोनों गले लगकर रो लें। मैं धीमे से उसके सिराहने बैठकर उसे देखने लगा।
SR No.010355
Book TitleJainendra Kahani 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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