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________________ १६२ जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग ] से प्यार कर पाती है और उस पर करुणा का अधिकार है ! यह अधिकार की बात ही करुणा की सहानुभूति को मानो खट्टा बना देती है। उसकी ठंडी सांत्वना मानो और जलन भड़का देती है । : ६ : दिन बीतते रहे, और पाँच साल निकल गये । पृथ्वीचन्द ब गुल्ली-डंडे से खेलता है । पतिया को चिढ़ाता और मारता है, करुणा का भी बहुत अदब नहीं करता, सिर्फ बाबूजी को डरता है । लेकिन करुणा उसकी अम्मा है - पतिया पतिया हैं । फिर भी पतिया उसे खूब चीजें देती है, चाहे चुराकर ही क्यों न दे । करुणा ज्यादातर उसे डपटने का काम करती है । वास्तव में बात यह है कि वह पतिया को इसीलिए मार पाता है; क्योंकि उसे वह ज्यादा प्यार करता है । पतिया अब फटे-टूटे हाल में नहीं रहती, मानो घर का वह अब अंश है । उसकी बात मानी जाती है, और वह अब खर्च के बारे में भी बहुत आज़ाद है । पर पैसे और प्यार के लिए पतिया के पास एक ही मद्द है— पृथ्वीचन्द । किन्तु करुणा अब जिम्मेदारी का अनुभव करने लगी है । हमारे बच्चे को यहाँ बैठना चाहिए, वहाँ नहीं । ऐसे रहना चाहिए. वैसे नहीं । उसे जिन्दगो में यह बनना है । करुणा उसके भविष्य का चित्र बहुत उज्ज्वल खींचता है। विश्वास है, उसका पृथ्वीचन्द माँ को सुखी करेगा । ऐसे ही चमत्कारपूर्ण भविष्य में विश्वास रखकर, करुणा पृथ्वीचन्द को समय-समय पर उपदेश दिया करती है । एक दिन उससे कहा गया " देख पृथ्वी, पतिया के पास ज्यादा मत बैठा कर । अब तू -
SR No.010355
Book TitleJainendra Kahani 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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