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________________ १५८ जैनेन्द्र की कहानियां [द्वितीय भाग] का बच्चा है, तो प्रमोद को चैन से कैसे वकालत करने दी जा सकती है ? यार-दोस्तों ने चुहलबाजी में और रिश्तेदारों ने धीर-गम्भीरता से, दस तरह की दस बातें कहनी शुरू की। पर प्रमोद सुनता है और झेल लेता है, और करुणा को आकर सुना देता है। करुणा लजा जाती है । यथा प्रमोद ने कहा, "लोग कहते हैं, इस बच्चे के लिए मुझे कुछ मेहनत नहीं करनी पड़ी। उनकी यह बात गलत तो नहीं है।” ___करुणा इस पर सिंदूरिया पड़कर हलकी-सी 'सी सी' कर देती है । लेकिन बच्चे पर माँ-बाप दोनों ही खूब लाड़ बरसाते हैं। लोग इस बात को देखकर बड़े अचरज में हैं । बहुत कुढ़ते हैं, पर प्रमोद . कह देता है, "तो फिर बच्चे का क्या कुसूर ? मान लिया मेरा नहीं है, तो ?–बच्चा तो बच्चा ही है।" इस अद्भुत उत्तर के आगे किसी का कुछ वश नहीं चलता, और वे प्रमोद को 'असुधार्य' मूर्ख समझ कर छोड़ देते हैं। ___ बच्चे का नाम रखा गया है-पृथ्वीचन्द ! कैसा धरती पर चाँद सरीखा उगता-खिलता पड़ा मिला था वह ! पृथ्वीचन्द चन्द्रसरीखा ही बढ़ रहा है । करुणा अब उसके लिए नौकरानी की जरूरत समझ रही है। अब उसके कामों में वह अड़चन डालने लगा है। ऐसे ही वक्त संयोगवश एक फटी-बेहाल औरत आ पहुँची। "बहूजी, नौकरी कुछ मिल जाय । बड़ा पुन्न होगा। मैं बच्चे को खिला लँगी-जरा नहीं रोने दूंगी। और रोटी-कपड़े पर पड़ी रहूँगी। और कुछ नहीं चाहिए। बहूजी, मैं बड़ी विपत में हूँ।......बड़ा पुग्न होगा बड़ी असीस दूंगी।"
SR No.010355
Book TitleJainendra Kahani 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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