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________________ १९३२ जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग ] डाले हैं | इस छोटे से अपने कलेजे के टुकड़े को सामने पाकर भीतरभीतर से कुँठित स्नेह का आवेग आँसू और दूध बनकर बाहर झर गया है । इससे अब वह कुछ स्वस्थ है । और यों आँख मूँदे, जगी हुई, कुछ प्रिय स्वप्न ले रही है । विनोद ने दबे पाँव प्रवेश किया। देखता रह गया । फिर बाँह पकड़कर हिलाते हुए कहा, "उठो तो ।” ठीक यही स्वप्न वह ले रही थी और इसी तरह हाथ पकड़कर उठाये जाने का स्वप्न बस अब आ ही रहा था । लेकिन उस वक्त के जाने पर किस तरह से क्या करके उत्तर देना होगा, इसके बारे में जो कुछ सोचा था वह एकदम से याद से उतर गया है, उसी को खींच ले आने के लिए याद गई हुई है। इसलिए विनोद के उपद्रव के उत्तर में निरुत्तर होकर वैसे ही आँख मीचे उसे पड़ा रहना पड़ गया । विनोद ने बाँह को और जोर से हिलाते हुए कहा, "उठो, उठो । उठना जरूर होगा । और उठकर अभी मेरे साथ चलना होगा ।" स्मृति बिल्कुल विलुप्त हो गई है और इस पति नामक देव का उत्पात बढ़ता ही जाता है। सुनयना ने कहा, “सोने दो हमें । हम नहीं कहीं जाते ।" पति ने कहा, "जाना तो पड़ेगा ही ।" और कहकर इतने जोर से बाँह को हिलाया, जैसे द्वार की कुण्डी को पकड़कर बड़े जोर से हिला - बजाकर चेतावनी दी जा रही हो कि इस बारे में भीतर कोई सन्देह हो तो उसे फौरन भाग जाना चाहिए ! सन्देह तो सुनयना के मन में बिल्कुल नहीं रह गया। लेकिन - कहा, "नहीं जायेंगे हम। हमें नींद आ रही है। हाँ तो, एक घड़ी चैन नहीं लेने देते ।”
SR No.010355
Book TitleJainendra Kahani 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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