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________________ १२६ - जैनेन्द्र की कहानियां [द्वितीय भाग] ही रख सकेगी ? उसे कायम कैसे भी नहीं रहने देगी । उसका मतलब तो पूरा हो गया, उसका मान रह गया ; अब बड़ी कृतार्थता के साथ अपने मान को खंडित करके अपने उस खंडित मान की भेंट पति के चरणों में रख देगी । खुद हार जायगी; और पति की हार को अपने सम्पूर्ण समर्पण के साथ उसे लौटा कर कहेगी"देव, मैं तुम्हें हारने नहीं दूंगी। तुम सदा-सदा दासी पर विजय पाओ । पर उस दासी का मान भी कभी-कभी ऐसे ही रख लिया करो।" सुनयना ने कहा, "तो मैं कब कहती हूँ, नौकर रखने की। अब कभी नहीं कहूँगी। लल्लू को देख-देख, कभी कह देती हूँ, सो कभी नहीं कहने की।" विनोद ने सुनयना को देखा । जैसे सुनयना की आँखें कह रही हैं, "मैं अलग नहीं रहूँगी। तुम में ही मिल जाऊँगी। तुम में खो जाऊँगी।" विनोद खा चुके थे, पर थाली पर ही बैठे थे। वहीं बैठे-बैठे उन्होंने पत्नी का हाथ पकड़ कर खींच लिया, और उस हाथ का चुम्बन ले लिया ; मानों कहा, "तुम्हें मैं नहीं खोने दूंगा। उससे पहले ही मैं तुम में हो जाऊँगा, तुम से बाहर होकर शेष नहीं रहँगा।" गोदी में प्रद्युम्न है। बड़ा मगन है । अभी अच्छी तरह बैठ नहीं सकता; लुढ़क -पुढ़ककर हाथ-पैर इधर-उधर फेंक सकता है । वह हाथ जब निष्प्रयोजन नाचते-हिलते किसी वस्तु का स्पर्श पा जाते हैं, तो फिर तुरन्त उस वस्तु को मुँह में पहुँचा देने का अपना कर्तव्य मानते हैं। हाथों के चालन-क्षेत्र में ठोस रुकावट का पदार्थ
SR No.010355
Book TitleJainendra Kahani 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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