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________________ ११४ जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग] हत्या से सहमत होता है, तब तो दाँत-विहीन मुँह को फैला कर, हाथ-टाँग और आँख नचा कर हँसता है और बोलता है-"हउ ।" इस पर वकील साहब कहते हैं-"है पूरा काठ का उल्लू ।" ऐसा भी होता है कि वह छोटे साहब कभी शुद्धता के पक्ष में हो जाते हैं और पिता के धृष्ट प्रश्न पर मुँह बिगाड़ लेते हैं और रोते हैं-"हु-ऊँ, हु-ऊँ।" उस समय वकील साहब तुरन्त परास्त हो जाते हैं और अपने इस छोटे से विरोधी प्रतिपक्षी को कभी गोद में लेकर और कभी कन्धे पर बिठा कर डोलने लगते हैं और कहते हैं-"अच्छा, प्रद्युम्न-प्रद्युम्न ।" लेकिन शिक्षित वकील की साहित्यिक धृष्टता पर छोटे बाबू को होता है क्षोभ बहुत, जल्दी शान्त नहीं होता। तब बुलाहट होती है-"लो जी, इसे लो अपने पर्दुमन को । यह तो रूठे जाते हैं।" इस पर, जहाँ भी होती है वहीं से श्राकर, सुनयना उसे पुचकारती-पुचकारती गोदी में ले लेती है, कहती है-"हमारा लाला बेटा चाँद है । हमारी बेटी चंदोरानी है । रानी है, हाँ तो... पदुमन नहीं है ।" और यह पुरुषत्वाहंकारशून्य प्रद्युम्न रानी बन कर झट मन जाते हैं और खिल जाते हैं। - प्रद्युम्न के दादी भी है । और एक बाबा भी हैं। दादी की तो जैसे जान ही इसमें अटकी है । और बाबा की कुछ पूछिए मतदिन-रात, दिन-रात अपने प्रद्युम्न में ही लगे रहते हैं। उन्होंने बड़ी बड़ी ईजादें की हैं। रोना शुरू करने वाला हो, तो जोर से बिहाग गाना शुरू कर दो, गाना सुनने लगेगा, रोना भूल जायगा। जोर की दो-तीन भारतमाता-की-जय भी रोदन-रोग में काफी कारगर ओषधि है । गठड़ी में गुड़ी मुड़ी करके विठा दो, और गठड़ी को हाथ से मुलाओ, बड़ा खुश होगा और धीरे-धीरे सो जायगा। अपने प्रद्युम्न में डाला की कुछ पूछिए कड़ी ईजादें की
SR No.010355
Book TitleJainendra Kahani 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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