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________________ चोर यह है बहन कि चोर का होल मुझे भी था । इसी से बोल नहीं रही थी, चुप थी।" ___ रूपवती बोली, "औरों की बात तो नहीं कहती, नीम पर चढ़कर इनके घर तो मैं कहो जब पहुँच जाऊँ।" __ सब जनीं इस पर बहुत खुश हुई और कहने लगी कि यह बात पते की है । मेरे मन में खुद इस कटे नीम की बात कई बार आई थी। सोचती थी म्यूनिसिपलिटी में लिखकर कटवा दूं। इस मरे पेड़ को भी यहीं होना था। मैंने जैनमती की तरफ देखकर कहा"जीजी, बताओ क्या करूँ ? पेड़ है तो बड़े बेमौके, कोई चढ़कर श्रा सकता है। हमारा दिलीप ही रोज यहाँ से सड़क पर उतर जाता है । कहती हूँ, मानता ही नहीं।" जीजी ने कहा, "तो उनसे कहा ?" मैं बोली, "उनसे जब कहा, तो उन्होंने कौन-सा काम करके रखा । बोले-'नीम के पेड़ से ठण्डी हवा आती है ।' मैंने कहा'चोर जो आ सकता है ?? बोले-'ज़रूर आ सकता है, इससे किवाड़ खुले रखा करो और वक्त-बे-वक्त के लिए दो-चार रोटियाँ भी बचा रखा करो । आए कोई, तो उसे खाने को तो मिल जाय । चोर बेचारा भूखा होता है ।' तब से जीजी, मैंने तो कान पकड़ा, जो कुछ कहूँ । सीधी की वह तो उल्टी लगाते हैं। जेठजी से कहना, वह कुछ इन्तजाम करदें, तो मुझे कल पड़ जाय । हर घड़ी दिल धुक-धुक करता रहता है । बात यहाँ कर रही हूँ और मन"। क्या बजा होगा ?" "नौ बज गया।" ___ मैं घबरा कर बोली, “नौ !” सब जनीं मेरा तमाशा देखने लगीं। मैंने कहा, "मुझे जाने दो। चल प्रधुन, चलें।"
SR No.010355
Book TitleJainendra Kahani 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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