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________________ जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग ] लड़की सुन कर इस आखिरी हमदर्द को जाते हुए देखकर आँखें फाड़े खड़ी रह गई । ८५ बाबू बेचारे क्या करते ? दिल को मजबूत कर घर की तरफ़ मुँह उठाते हुए चले-चलते गये । ख्याल आया कि चलूँ लौट कर एक रुपया उसके हाथ में रख दूँ, और कहूँ - 'बेटी इकन्नी तो इसके पास पड़ी हुई मिली नहीं, यह अपना रुपया लो ।' पर इस ख्याल को बराबर ख्याल में ही लिये और दोहराते हुए वह एक पर एक डग बढ़ाते घर की तरफ़ चलते चले गए । घर पहुँचे । बाहर सड़क पर एक तरफ़ देखा कि बुद्ध भगवान् की तरह विरक्त रमेश बाबू बैठे हैं। पिता ने कहा, "अरे रमेश, क्यों क्या है यहाँ क्यों बैठा है ।" रमेश ने सुनकर मुद्रा और पारलौकिक करली और कोई जवाब नहीं दिया । पिता ने हाथ के झोले को दिखाकर कहा, "अरे चल, देख तेरे लिये क्या लाया हूँ ?” रमेश ने देखा, न सुना । कोई उससे मत बोलो। किसी का उससे कुछ मतलब नहीं। तुम सब जियो, वह अब मरेगा । रमेश के पिता मुस्करा कर आगे बढ़ गये । सोच लिया कि इस घर में जो है, रमेश की माँ है । अन्दर कर देखा कि रमेश की माँ भी अनमनी हैं । बरामदे में पड़े हुए रुपये को उठाकर कमरे में घूमते हुए कहा, "क्यों, क्या बात है ? आज तो चूल्हा भी ठंडा है । " मालूम हुआ कि बात यह है कि रमेश की माँ को अभी अपने मैके पहुँचाना होगा। क्योंकि इस घर में जब उसे कुछ चीज ही नहीं समझा जाता है तो उसके रहने और सब का जी जलाने से क्या
SR No.010355
Book TitleJainendra Kahani 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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