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________________ जैनेन्द्र और धर्म रह सका है । धर्म प्रोर सम्प्रदाय आत्मा और देह के सदृश्य अकाट्य बन्धन से बधे है। उनके सम्बन्धो को बाह्य प्रहारो द्वारा नष्ट करना उचित नही है । जैनेन्द के अनुसार धर्म का सस्थाबद्ध रूप ही सामाजिक व्यवस्था के लिए उपयुक्त हो सकता है। ___जैनेन्द्र की धार्मिक विचारधारा समयानुकूल परिवर्तनशील है। युग की परिस्थितियो पोर मानसिक चेतना के परिवर्तन के साथ यदि उसमे परिवर्तन नही होता तो उसे स्वीकार करना कठिन प्रतीत होगा । सृष्टि के आदिकाल से ही आत्मतत्व के ज्ञान की जिज्ञासा मानव मे विद्यमान रही है । जीवन परिवर्तनशील है। जीवन में परिवर्तन होने के साथ-ही-साथ व्यक्ति विचारो और मान्यताप्रो मे भी परिवर्तन होना स्वाभाविक है। धर्म जीवन के विविध अगो का मूलाधार है । अत धर्म के बाह्य रूप सम्प्रदाय और सस्थानो मे भी अन्तर पाना स्वाभाविक है। जिस प्रकार शरीर नश्वर है, एक ही शरीर अनन्तकाल तक एक ही रूप मे विद्यमान नहीं रह सकता । इसके अतिरिक्त रोगग्रस्त तथा वृद्धावस्था के कारण अजित शरीर का नष्ट होना आवश्यक है अन्यथा वह शरीर ही बोझ बन जाता है। उसी प्रकार धार्मिक सम्प्रदायो की भी एक निश्चित प्रायु होती है। ममय-समय पर सस्थानो मे अनेको दोप उत्पन्न हो जाते है । अत धर्माचार्यों द्वारा धर्म के सम्प्रदाय रूपी शरीर का पुनर्निर्माण आवश्यक है । प्राधुनिक युग विज्ञान का युग है । अब लोगो की बाह्य कर्मकाण्ड मे प्रास्था समाप्त हो रही है। जैनेन्द्र वर्तमान मानसिक चेतना और परिस्थितियो से पूर्णत अवगत है। उन्हे धर्म की व्यापक शक्ति का पूर्ण ज्ञान है । उनके अनुसार धर्म कर्मकाण्ड मे ही सीमित नहीं रह सकता। धर्म का स्वरूप युग-विशेष की आवश्यकता पर ही निर्भर करता है, किन्तु धर्म के अस्तित्व को कभी भी नकारा नही जा सकता । धर्म तो आत्म धर्म है, जीवन धर्म है प्रत उसका रूप शाश्वत है। आत्मा के स्वरूप मे कोई अन्तर नही पाता। सभी सम्प्रदाय आत्म-धर्म से युक्त होकर ही सही माने जा सकते है । धर्म रहित सम्प्रदाय उसी प्रकार व्यर्थ हे, जेसे आत्मा रहित शरीर । जैनेन्द्र के अनुसार धर्म के सस्थागत रूप को स्वीकार करने के लिए अहिसा धर्म का पालन आवश्यक है। किसी भी सम्प्रदाय के अस्तित्व पर प्राघात नही किया जा सकता, क्योकि वे धर्म की प्राप्ति के विविभ मार्ग है, जो एक ही लक्ष्य की ओर सतत् अग्रसर हो रहे है। जैनेन्द्र का यह दष्टिकोण सत्य और उपयोगी प्रतीत होता है । उसमे द्वन्द्व के लिए स्थान १ 'मन्थन', पृ.० १६६ । २ जैनेन्द्रकुमार 'प्रश्न और प्रश्न', दिल्ली, पृ० ११६ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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