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________________ ८० जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन प्रार्थना का महत्व जैनेन्द्र ईश्वर की उपासना के लिए प्रार्थना को अनिवाय मानते है। प्रार्थना के द्वारा व्यक्ति में आत्म-शक्ति का विस्तार होता है। गाधी जी ने अपने जीवन मे प्रार्थना पर विशेष रूप से बल दिया था। प्राथना उनके जीवन का एक अनिवार्य अग थी। उनकी दृष्टि में प्राथना की बेला में पारस्परिक भेद-भाव विनष्ट हो जाता है । सत खतील जिब्रान ने भी प्रार्थना की प्रगिवायता को स्वीकार किया था। उनकी दृष्टि मे प्रार्थना करते समय ऊचे उठकर व्यक्ति उन महत्ती आत्मालो से भेट करता है जो उस समय प्रार्थना रत होती है और जिनसे प्रार्थना-बेला के अतिरिक्त कभी भेट नही हो सकती। जैनेन्द्र ने 'कल्याणी' के माध्यम से जिस पूजा गह की कल्पना की है, उसमे नीच-ऊच सभी का प्रवेश स्वीकार्य है । हिन्दू, मुसलमान, श्द्र आदि का प्रार्थना के मदिर मे निषेध नही किया गया है। प्राथना के द्वारा व्यक्ति ईश्वर के प्रति पूर्णत समर्पित हो जाता है। उसमे अपना आपा भी शेष नही रह जाता है । वह भक्ति-भाव में विभोर होकर भगवान के नाम की रट लगा लेता है। यही नही, उसका सन पूगा वश अर्घ्य की भाति समर्पित हो जाता है । 'साधु की हठ' गीर्ष महानी म साधु प्रार्थना करता हुया ईश्वर के माय आत्मसात् हो जाने के लिए पता रहता है । वह चाहता है कि ईश्वर की भक्ति उसम इस प्रकार समाहित हो जाय कि इतर भावो के हेतु अवकाशहीन न रह जाय । जैनन्द्र की कुछ कहानियो मे (गवार' आदि में) भक्ति-भावना छद्म रूप से व्यक्त हुई है। उनमें ईश्वरीय आस्था प्रमुख नही है। किन्तु 'साधु की हठ' में मान्नु की अतिशय विनम्रता और समर्मण में ईश्वर से साक्षात्कार की कामना पूर्ण निश्छन्नता के साथ मुखरित हई है। उसकी भावविह्नता में सत्य का छिपावन होकर प्रात्म प्रकाशन की ही प्रधानता है। वह ईश्वर के विरह मे व्याकुल हाकर कहता है कि 'क्या मैने मुझे रोकर अपनी आत्मा के अध्यं की अजलि को तेरी स्वीकृति के समक्ष लिए बैठकर, तुझे सौ-सौ बार, हर हर बार, विश्वाग नही दिलाया कि १ 'प्रार्थना से शक्ति आती है। जिस निर्बलता ने राम का बल पकडा हे, उसका बल फिर क्यो हारे ? परमात्मा में विश्वास रखो वह भय से हमे तारेगे ।' -~~~-जैनेन्द्रकुमार सुनीता', दिल्ली, १६६४, प्र० स०, पृ० १६८ । २ सत खलील जिब्रान 'जीवन दर्शन' (अनु० दि प्रोफेट अनु० सत्यकाम विद्यालकार) सशोधित सस्करण, १९५८, पृ० ७० ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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